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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मन सुन कर श्रीधर व श्रीपति नामक दोनों ब्राह्मणों को साथ में ले सूरिजी के पास आये । सूरिजी ने उन ब्राह्मणों को योग्य समझ कर जैन दीक्षा दी और क्रमशः उनको सूरिपद से विभूषित कर जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागरसूरि नाम प्रतिष्ठित कर दिये । बाद में, वर्द्धमान सूरिने उन दोनों सूरियों को विहार की प्राज्ञा देते हुए कहा कि पाटण नगर में चैत्यवासी श्राचार्य सुविहितों को पाटण में रहने नहीं देते हैं किन्तु विघ्न करते हैं अतः तुम वहां जाकर सुविहितों के लिये द्वारोद्धारन करो कारण तुम्हारे जैसे और कोई इस समय प्रज्ञ नहीं हैं। जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि ने गुर्वाज्ञा को शिरोधार्य कर तत्काल ही गुर्जर प्रान्त की ओर बिहार कर दिया । क्रमशः शनै २ सूरि द्वय बिहार करते हुए अणहिल्लपुर पट्टण पधार गये। स्थान के लिये घर २ पर याचना की पर पाटण जैसे लाखों की आबादी वाले विशाल शहर में ठहरने के लिये किसी ने भी मकान नहीं दिया । उभय आचार्यों को अपने गुरु वर्द्धमान सूरि के उक्त वचन सत्य प्रतीत होने लगे कि पाटण में सर्वत्र चैत्यवासियों का ही साम्राज्य है अतः सुविहितों की दाल नहीं गलती है। उस समय पाटण में राजा दुर्लभ राज्य करता था। वह नीति और पराक्रम शिक्षा में वृहस्पति के उपाभ्याय समान सर्व कला कुशल था। उस राजा के सोमेश्वर नाम का पुरोहित था। जिनेश्वर सूरि नगर में परिभ्रमन करते हुए पुरोहित के मकान पर आये और वेदवेदांग का उच्चारण करने लगे। वेदोचारण सुनकर उस पुरोहित ने उन सूरियों को अपने पास में बुलाया। जब सूरिजी पुरोहित के पास में आये तो पुरोहित ने उनका बहुत ही सम्मान किया। सूरिजी भी भूमि प्रमार्जन कर अपना श्रासन बिछाकर बैठ गये । पुरोहित को धर्मलाभ देते हुए वे कहने लगे कि वेदों और जैनागमों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझ करके ही हमने अहिंसा मय जैन धर्म को स्वीकार किया है। इस पर पुरोहित ने पूछा- महात्मन् ! आप लोग यहां कहां ठहरे हुए हैं ? जिनेश्वरसूरि-यहां चैत्यवासियों का प्राधान्य होने से हमें कहीं भी रहने को स्थान नहीं मिलता है । इस पर पुरोहित ने अपने मकान के ऊपर के भाग में एक चंद्रशाला खोल दी । श्रीजिनेश्वर सूरि भी सपरिवार वहां ठहर गये और शुद्ध आहार पानी लाकर गौचरी करने लगे। तदनन्तर पुरोहित अपने छात्रों को सूरिजी के पास में लाया और सूरिजी ने उनकी परीक्षा ली। इतने ही में चैत्यवासियों के आदमियों ने आकर जिनेश्वरसूरि को कहा कि तुम इस नगर को छोड़ कर चले जावों कारण, इस नगर में चैत्यवासियों की सम्मति बिना किसी भी श्वेताम्बर साधु को ठहर ने का अधिकार नहीं है । इस पर पुरोहित ने कहा कि इसका निर्णय राजा की सभा में राजा के समक्ष कर लिया जायगा । बस उन लोगों ने जाकर चैत्यवासियों से कह दिया तब चैत्यवासी मिल कर राजसभा में आये और उधर से पुरोहित भी राजा के पास आया। पुरोहित ने राजा से कहा कि मेरे घर पर दो मुनि श्राये, उनको ठहरने के लिये मैंने स्थान दिया है, इसमें यदि मेरा कुछ अपराध हुआ हो तो आप मुझे इच्छानुकूल दण्ड प्रदान करें। इस पर हंस कर राजा ने चैत्यवासियों के सामने देख कर पूछा कि देशान्तर से कोई साधु आवे और उसको रहने के लिये स्थान मिले तो इसमें श्राप क्या दोष देखते हैं ? कई पट्टावली कारों का कहना है कि सोमेश्वर पुरोहित संसार सम्बन्ध में जिनेश्वर सूरि के मामा लगता था। १२४८ जिनेश्वरसूरि पारण के घरघर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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