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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८ से १२३ चैत्यवासी बोले-हे नरेन्द्र ! श्राप पूर्व कालीन इतिहास को ज्यान पूर्वक सुनें पूर्व जमाने में वनरा चावड़ा नामक पाटण का एक विख्यात राजा हो गया है । उसको नागेन्द्र गच्छ के आचार्य देवचंद्रसूरि ने बाल्य वस्था से ही सहायता पहुँचाई तथा पंचासरा के चैत्य में रहते हुए उन्होंने इस नगर की स्थापना करवाइ और कर राज चावड़ा को राजा बनाया। वनराजने वनराजविहार-मन्दिर बनवाया और श्राचार्यश्री को कृतज्ञता पूर्वक असा धारण सम्मान से सम्मानित किया । उस ही समय श्रीसंघ ने राजा के समक्ष ऐसी व्यवस्था की थी कि समुदाय के भेद से समाज में बहुत लघुताभाती है अतः इस पाटण नगर में चैत्यवासियों को बिनासम्मति लिये को मी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सके, इसमें राजा की भी सम्मति थी अस्तु । पूर्व कालीन नरेश होगये हैं वे राजाके साथ श्रीसंघ की की हुई उक्त मर्यादा का बराबर पालन करते आरा है अतः भपको भी अपने पूर्वजों की मर्यादा का दृढ़तासे पालन करना चाहिये। फिर तो जैसी आपकी इच्छा राजाने कहा-पूर्व नृप कृत नियमों का हम दृढ़ता पूर्वक पालन कर सकते हैं। पर गुणी जनों के पूजा का हम उल्लंघन भी नहीं कर सकते हैं। हां, आप जैसे सदाचार निष्ट महापुरुषों के शुभाशीर्वाद से ही राजा अपने गव्य को आबाद बनाते हैं इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है पर मेरी नम्र प्रार्थन नुसार भी आप इन साधुओं को नगर में रहने देना स्वीकार कर। राजा के अत्याग्रह को भावी भाव समम कर चैत्यवासियों ने स्वीकार कर लिया। सोमेश्वर पुरोहित ने तत्काल राजा से प्रार्थना की कि इन साधुओं के रहने के लिये भूमि प्रदान करें । इसने ही में ज्ञानदेव नामक शिवाचार्य राजसभा में पाया। राजाने उसका सत्कार कर उसे श्रासन पर बैठाया । कुछ समय के पश्चात् शिवाचार्य ने कहा राजन् ! आज मैं आपसे कुछ कहने के लिये आया हूं और वह यह है कि यहां दो जैनमुनि आये हैं उनको ठहरने के लिये स्थान दो और निष्पाप गुणीजनों की पूजा करो । मेरे उपदेश का सार भी यही है कि बाल भाव का त्याग कर परम पद में स्थिर रहने वाला शिव ही जिन है । दर्शन में भेद डालना मिथ्यात्व का लक्षण है इस पर राजा ने बाजार में दो दुकानों के पीच में भूसा डालने के स्थान को साधुओं के लिये पुरोहित को दे दिया। उसी भूमिपर पुरोहित ने जिनेश्वर सूरिके लिये उपाश्रय बनाया और उसी मकान में जिनेश्वरसूरे ने चतुर्मास किया । बस, उसी दिन से बसतिवास की स्थापना हुई । बुद्धिसागरसूरिने पाटण में ही रहकर आठ हजार श्लोक वाले बुद्धिसागर नामके व्याकरण का निर्माण किया। बाद जिनेश्वरसूरि धारा नगरी की ओर विहार कर दिया। कई लोग यह भी कहते है कि जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे वहाँ राजा दुर्लभ की राज सभा में चैत्यावासियों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें जिनेश्वरसूरि की विजय हुई उपलक्ष में राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को 'खरतर' बिरुद दिया परन्तु उपरोक्त लेख से वह घात कल्पित एवं मिथ्या ठहरती है कारण इस लेख में न तो जिनेश्वरसूरि राज सभा में गए थे न किसी चैत्यावासियों के साथ आपका शास्त्रार्थ ही हुआ । और न राजा दुर्लभ ने किसी को विरुद ही दिया। इस लेख में तो स्पष्ट लिखा है कि राजसभा में पुरोहित सोमेश्वर गया था और राजा दुर्लभने चैत्यवासियों को अच्छे एवं सदाचार निष्ट कह कर आये हुए साधुओं को नगर में ठहरने देने की सम्मति मांगी थी और पुरोहित के कहने पर राजा ने बाजार में भूसा डालने की बेकार भूमि पड़ी थी जिसको ज्ञानदेव शिवाचार्य के उपदेश से भूमिदान दिया जिस पर जिनेश्वरसूरि के ठहरने के लिये पुरोहितने मकान बनाया और जिनेश्वरसूरिने उसी मकान में चतुर्मास कर पाटण में वसतिवास नाम के चैत्यवासी राज सभामें १२४९ wwwwwwwwwwwwwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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