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________________ वि० सं० ११०८-११२८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शान्त चित्त से जिन देशना सुनते हैं। तथा ईशान कौन में देवरचित देवछंदा है। जा तीर्थकर पहिले पहर में अपनी देशना समाप्त करने के बाद उत्तर के दरवाजे से उस देवबन्दे में पधारते हैं, तब दूसरे पहर में राजादि रचित सिंहासन पर बिराजके तथा पादपीठ पर विराजमान हो गणधर महाराज देशना देते हैं। तीसरे प्रकोट में हस्ती अश्व सुखपाल जाण रथ वगैरह सवारियों रखी जाती हैं, चौरस समवसरण में दो २ और वृतुल में एकेक सुन्दर वापियों हुआ करती हैं, जिसमें स्वछ और निर्मल जल रहता है। प्रथम रत्नों के गढ़ के दरवाजे पर एकेक देवता हाथ में अवध लिए प्रतिहार के रूप में खड़े रहते हैं। (१) पूर्व दिशा के दरवाजे पर सुवर्ण क्रान्ति शरीर वाला सोमनामक वैमानिक देवता, हाथ में ध्वज लेकर खड़ा रहता हैं। (२) दक्षिण के दरवाजे पर श्वेत वर्णमय यम नामक व्यन्तर देव हाथ में दण्ड लेकर दरवाजे पर खड़ा रहता है। (३) पश्चिम के दरवाजे पर रक्तवर्ण शरीर वाला वारूण नामक ज्योतिषी देव हाथ में पास लेकर खड़ा रहता है। (४) उत्तर के दरवाजे पर श्यामवर्णमय कुबेर (धनद ) नामक भुवनपति देव हाथ में गदा लेकर खड़ा रहता है । ये चारों देव समवसरण के रक्षार्थ खड़े रहते हैं। दूसरे सुवर्ण प्रकोट के प्रत्येक दरवाजे पर देवी युगल प्रतिहार के रूप में स्थित है, जिनके नाम जया, विजया, अजिता, अपराजिता, क्रमशः उनके शरीर का वर्ण श्वेत, अरूण, ( लाल ) पीत, (पीला ) और नीला हाथ में अभय अंकुश पास और मकरध्वज, नाम के अवध (शस्त्र ) हैं। तीसरे चान्दी के प्रकीट के प्रत्येक दरवाजे पर प्रतिहार देवता होते हैं जिनके नाम तुम्बरू, खड्गी कपालिक, और झटमुकुटधारी, इन चारों देवताओं के हाथ में छड़ी रहती है, और शासन रक्षा करना इनका कर्तव्य है। तीर्थंकरों के समवसरण का शास्त्रों में बहुत विस्तार से वर्णन है, पर बालबोध के लिये ज्ञानियों ने लघु अन्य में सामान्य, (संक्षिप्त) वर्णन किया है। इस समवसरण की देवताओं का समूह अर्थात् इन्द्र के श्रादेश से चार प्रकार के देवता एकत्र होकर रचना करते हैं । अगर महाऋद्धि सम्पन्न एक भी देवता चाहे सो पूर्वोक्त समवसरण की रचना कर सकता है फिर अधिक का तो कहना ही क्या ? पर अल्पऋद्धिक देव के लिए भजना है-वह करे या न भी कर सके। समवसरण की रचना किस स्थान पर होती है ? वह कहते हैं कि जहां तीर्थंकरों को कैवल्यज्ञानोत्पन्न होता है वहां निश्चयात्मक समवसरण होता ही है और शेष पहिले जहां पर समवसरण को रचना नहीं हुई हो अर्थात् जहां पर मिथ्यात्व का जोर हो अधर्म का साम्राज्य वर्त रहा हो, पाखण्डियों की प्राबल्यता हो, ऐसे क्षेत्र में भी देवता समवसरण की रचना अवश्य करते हैं। और जहां पर महाऋद्धिक देव और इन्द्रादि भगवान् को वन्दन करने को आते हैं, वे देवता भी आवश्यकता समझे तो समवसरण की रचना करते हैं जिससे शासन का उद्योत, धर्म प्रचार और मिथ्यात्व का नाश होता है। शेष समय पृथ्वी पीठ और सुवर्णकमल की रचना निरन्तर हुआ करती है जिस पर विराजमान हो प्रभु देशना देते हैं इस प्रकार के समवसरण प्रत्येक तीर्थंकरों के एक केवलज्ञान उत्पन्न हो वहां और एक अन्यत्र एवं दो दो समवसरण तो होते ही है पर इस अवसर्पिणी काल में भ० ऋषभदेव के आठ समवसरण हुए कारण उस समय के लोग प्रायः भद्रिक थे और युगलधर्म को नजदीक समय में ही छोड़ा था अतः उनके लिये खास जरुरत थी तब भ० महाबीर के शासन में १२ समवसरण हए कारण उस सयम मिथ्यत्व का जोर हुआ था यज्ञ वादियों की बड़ी प्राबल्यता थी। अतः बारह समवसरण हुए शेष २२ तीर्थकरों के दो दो ही wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Jain E१४६८ For Private & Personal use Only समवसरण की रचना किस स्थान पर.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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