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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ श्रोसवाल सं० १५०८ - १५२८
मच्छयुगल, और दर्पण एवं अष्टमंगलिक तथा सुन्दर मनोहर विलास संयुक्त पूतलियों पुष्पों की सुगन्धित मालायें, वेदिका और प्रधान कलश मणिमय तोरण वह भी अनेक प्रकार के चित्रों से सुशोभित है और कृष्णागार धूप घटीए करके सम्पूर्ण मण्डल सुगन्धिमय होते हैं । यह सब उत्तम सामग्री व्यन्तर देवताओं की बनाई हुई होती है |
एक हजार योजन के उत्तंग दंड और अनेक लघु ध्वजा पताकाओं से मण्डित महेन्द्रध्वज जिसके नाम धर्मध्वज, मणिध्वज, गजध्वज, और सिंहध्वज गगन के तला को उलांघती हुई प्रत्येक दरवाजे स्थित रहे । कुंकुंमादि शुभ और सुगन्धी पदार्थों के भी ढेर लगे हुए रहते हैं। विशेष समझने का यही है कि जो मान कहा है, वह सब आत्म अङ्गुल अर्थात् जिस जिस तीर्थकरों का शासन हो उनके हाथों से ही समझना ।
समवरण के पूर्व दरवाजे से तीर्थंकर भगवान् समवसरण में प्रवेश करते हैं, प्रदिक्षणा पूर्वक पादपीठ पर पाँव रखते हुए पूर्व सन्मुख सिंहासन पर बिराजमान हो सबसे पहिले " नमो तित्थस्स" अर्थात् तीर्थ को नमस्कार करके धर्मदेशना देते हैं ? अगर कोई सवाल करे कि तीर्थकर तीर्थ को नमस्कार क्यों करते हैं ? उत्तर में ज्ञात हो कि -
( १ ) जिस तीर्थ से आप तीर्थंकर हुए इसलिए कृतार्थ भाव प्रदर्शित करते हैं । ( २ ) आप इस तीर्थ में स्थित रह कर वीसस्थानक की सेवा भक्ति आराधन करके तीर्थंकर नामगौत्र कर्मोपार्जन किया इसलिये तीर्थ को नमस्कार करते हैं । (३) इस तीर्थ के अन्दर अनेक केवली या तीर्थङ्करादि • उत्तम पुरुष एवं मोक्षगामी होने से तीर्थंकर तीर्थ को नमस्कार करे बाद अपनी देशना प्रारंभ करते हैं । ( ४ ) साधारण जनता में विनय धर्म का प्रचार करने के लिये इत्यादि कारणों से तीर्थंकर भगवान् तीर्थ को नमस्कार करते हैं ।
देशना सुनने वाली बारह परिषदा का वर्णन करते हैं, जो मुनि, वैमानिकदेवी, और साध्वी एवं तीन परिषदा श्रमिकोण में - भवनपति, ज्योतीषी व्यंतर इनकी देवियों नैरूत्य कौण में - भवनपति, ज्योतीषी, व्यंतर ये तीनों देवता वायव्य कौणमें, वैमानिकदेव, मनुष्य, मनुष्य स्त्रियों एवं तीन परिषदा ईशान कोण में । अतएव बारह परिषदा चार विदिशा में स्थित रह कर धर्मदेशना सुनती हैं ।
पूर्वोक्त बारह परिषदा से चार प्रकार की देवांगना और साध्वी एवं पांच परिषदा खड़ी रह कर और चार प्रकार के देवता, नर, नारी और साधु एवं सात परिषदा बैठकर धर्मदेशना सुने। यह बारह ही परिषदा सबसे पहिले, ओ रनों का प्रकोट है, उसके अन्दर रह कर धर्मदेशना सुनती हैं ।
पूर्वोक्त वर्णन आवश्यक वृति का है । फिर चूर्णीकारों का मत है कि मुनि परिषदा समवसरण में बैठ करके तथा वैमानिक देवी और साध्वी खड़ी रह कर व्याख्यान सुनती हैं। और शेष नव परिषदा अनिश्चित पने अर्थात् बैठकर या खड़ी रह कर भी तीर्थंकरों की धर्मदेशना सुन सके। तथा आवश्यक नियुक्तिकारों का विशेष
है कि पूर्व सन्मुख तीर्थंकर विराजते हैं । उनके चरण कमलों के पास अग्निकौन में मुख्य गणधर बैठते हैं और सामान्य केवली जिन तीर्थ प्रत्ये नमस्कार कर गणधरों के पीछे बैठते हैं उनके पीछे मन पर्यवज्ञानी उनके पीछे वैमानिक देवी और उनके बाद साध्वियां बैठती हैं । और साधु साध्वियों और वैमानिक देवियों एवं तीन परिषदा, पूर्व के दरवाजे से प्रवेश होकर के, अग्निकौन में बैठे । भवनपति व्यन्तर व ज्योतीषियों की देवियों एवं तीन परिषदा दक्षिण दरवाजे से प्रवेश होकर नैरूत्य कौन में, पूर्वोक्त तीनों देव परिषदा पश्चिम दरवाजे से प्रवेश होकर वायु कौन में और वैमानिक देव नर व नारी एवं तीन परिषदा उत्तर दरवाजे से प्रवेश होकर के ईशान कौन में स्थित रह कर व्याख्यान सुने, पर यह ख्याल में रहे कि मनुष्यों में अल्पऋद्धि महाऋद्धि का विचार अवश्य रहता है । अर्थात् परिषदा स्वयं प्रज्ञावान होती है कि वह अपनी २ योग्यतानुसार स्थान पर बैठ जाती हैं, परन्तु समवसरण में राग, द्वेष, इर्षा, मान, अपमान लेशमात्र भी नहीं रहता है । दूसरे स्वर्ण के प्रकोट में तिर्यञ्च अर्थात् सिंहव्याघ्रादि, तथा हंस सारसादि पक्षी जाति वैरभाव रहित,
अन्यान्य ग्रन्थों में समवसरण
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