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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७१०-७३६
फल नहीं देंगे । यही कारण है कि तीर्थकर भगवान ने दीक्षा लेने के पूर्व दुनियों को सिखाने के लिये पहिले वर्षीदिन दिया था क्योंकि संसार भर इनका अनुकरण कर सहज ही में कल्याण कर सके।
भगवान केशीश्रमणाचार्य सब गुणों की आवश्यकता जानते थे तथापि राजा प्रदेशी को सबसे पहिले दानधर्म का उपदेश दिया कि जो साधुओं की भिक्षा से भाग लेने वाला राजा प्रदेशी ऐसा उदार दिल वाला बन गया कि अपने राज की आमदानी का चतुर्थ भाग ज्ञानशाला में लगा दिया इसका विस्तार से वर्णन श्री राजप्रश्नी सूत्र में किया है।
श्री त्रिपा सूत्र में सुबहु आदि दश राजकुमारों के अधिकार में लिखा है कि उन्होंने पूर्व भव में उदारता पूर्वक दान देकर ऐसे पुन्योपार्जन किये कि बड़े ही सुखों का अनुभव करते हुये कई एक भव और कई १५ भव में मोक्ष जाने का निश्चय कर लिया इत्यादि ।
श्रोतागण ! दान कोई साधारण धर्म नहीं है पर एक विशेष धर्म है जिसमें भी पात्र को दान देना । इसका तो कहना ही क्या है । ऐसा नीतिकारों ने फरमाया है।
दूसरे को कोई भी पदार्थ देना उसको दान कहा जाता है वह दान दश प्रकार का है यथा१-अनुकम्पादान-दीन अनाथ दुःखी जीवों पर अनुकम्पा लाकर दान देना। २-संग्रहदान-व्यसनीया मृतपण्डादि मृत के पिछ दान देना ३-भयदान-राजा या बलवान के भय से दान देना। ४-कालुणा करुणा दान-पुत्रादि के वियोग में शोक वगैरह से दान देना । ५-लज्जादान-बहुत मनुष्यों के बीच रह कर उनकी लज्जा से दान देना । (-गर्वदान-नाटक नृत्यदि में दूसरों की स्पर्द्ध करता हुआ दान देना। ७-अधर्मदान-हिंसादि पाप करने वाले तथा व्यभिचारियों को दान देना । ८-धर्मादान---वृत्ति महात्मा को सत्पात्र जान कर दान देना। ९-प्रति उपकार-अपने पर उपकार करने वालों को दान देना। १४-कीर्तिदान-अपने यशः कीर्ति बढ़ाने के लिये दान देना।
जैसे-एकमास में अमावश की रात्रि पर्व अंधेरा और पूर्णिमा की रात्रि में सर्वथा उज्जवल शेष २८ गत्रि किसी में उज्जवल अधिक अंधेरा थोड़ा किसीमें अन्धेरा अधिक उज्जवल कम है इसी प्रकार उपरोक्त दम प्रकार के दान में सातवाँ अधर्मदान हय और आठवाँ धर्मदान उपादय है शेष आठ दान ज्ञय हैं कारण इन आठ प्रकार के दानों में पुन्य पाप का मिश्रण है अनुकम्पादान-अभयदान यह विशेष पुन्य बन्ध का कारण है । अभयदान के लिये तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई दानेश्वरी एक सोना का मेरु पर्वत बना कर दान दे रहा है तब दूसरा एक मरता हुआ जीव को अभय यानी प्राणों का दान दे रहा है तो अभय. दान के सामने सुवर्ण का मेरु पर्वत कुछ भी गिनती में नहीं है अतः अभयदान सब दानों में प्रधान दान है । तथा सुपात्र दान के भी दो भेद हैं एक स्थावर और दूसरा जंगमदान-शास्त्रकारों ने फरमाया है किस्थावरं जङ्गमं चेति सत्पात्रं द्विविधं मत् । स्थावरं पत्र पुष्पाय प्रासादं प्रतिमादिकम् ॥ १॥ ज्ञानाधिकं तपः क्षमा निर्ममं निराकृतिम् । स्वद्यायब्रह्मचर्यादि युक्तं पात्रं तु जङ्गम ॥२॥ दानधर्म का उदार व्याख्यान ]
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