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________________ वि० सं० ३१०-३३८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास इष्टदेव का मन्दिर बनाना मूर्तियों की प्रतिष्टा करवानी पुष्पादि से सेवा पूजा करना यह स्थावर सुपात्र दान है कि जिससे अनेक भव्य स्वपर का कल्याण कर सके दूसरा जङ्गम सुपात्र जो ज्ञानदर्शन चारित्र, तप, क्षमा, दया, तथा ममत्व एवं अहंकारादि रहित या स्वद्याय ध्यान योग श्रासन समाधि और ब्रह्मचर्यादि अनेक गुणों वाले महात्मा को दान देना यह जंगम सुपात्र दान है। साधु साध्वी श्रावक श्राविका मन्दिर मूर्ति और ज्ञान एवं सात क्षेत्र रूपी भूमि में दान रूपी बीज बोना और शुभ भावना रूपी जल सिंचन करने से भव भवान्तर में मोक्ष रूपी फल प्राप्त होता है अतः प्रत्येक बुद्धिवान का कर्तव्य है कि पूर्वोक्त शुभ क्षेत्र में यथाशक्ति दान करके सद् कर्म उपार्जन करना चाहिये। ___ उदाहरण के तौर देखिये ! एक समुद्र में अथाह जल है पर वह दूसरे का उपकार नहीं कर सके जब मेघ थोड़ा थोड़ा बरसता है वह सर्वत्र उपकार कर सकता है इसी प्रकार एक मनुष्य के पास अपार द्रव्य है पर वह दूसरे का उपकार नहीं कर सकता है तब वही धन थोड़ा थोड़ा दूसरे को दान रूप में दिया जाय तो अनेकों का उपकार हो सकता है अतः उदार मनुष्यों को चाहिये कि अपनी लक्ष्मी का दान करके लाभ उठावे । क्यों कि पाप और दुगति से बचाने वाला एक दान ही है यशः कीर्ति बढ़ाने वाला सुख सम्पति लाने वाला और संसार समुद्र से पार उतरने वाला एक दान ही है । दान देना तो बहुत बड़ी बात है पर दान देने वाले दानेश्वरी का अनुमोदन करने वाला एवं मुख देखने से भी स्वर्ग की प्राप्ती हो सकती हैं । महानुभावों । जैसे समुद्र का जल लेजाने से कम नहीं होता है पर बढ़ता है और उस जल का अच्छी तरह से रक्षण होता है इसी प्रकार धनवान के दान करने से धन कम नहीं होता है पर बढ़ता ही है कारण इस भव में शुभ कृत्य एवं उज्वल भावना से द्रव्य बढ़ता है तब भवान्तर में पुन्य वढ़ता है और पुन्य उदय होने से लक्ष्मी स्वयं आकर स्थिर वास करती है। जिस द्रव्य को खाना खर्चना और दूसरों को देना बस इतना ही द्रव्य तेरा है शेष द्रव्य के लिये तो केवल तू एक नौकर पहरेदार ही है। १-याचक घर २ में भटकते हैं वे यों तो भिक्षार्थ ही फिरते हैं पर दुसरा अर्थ इसका यह होता है कि वे जनता को चेतावनी देते हैं कि हमलोगों ने पूर्वभव में दान नहीं किया अतः इस प्रकार दीन होकर आपसे याचना करते हैं पर श्राप सावधान हो जाइये कहीं आपकी भी यही दशा न होजाय कि भवान्तर में हमारा अनुकरण करना पड़े । २-संग्रह करने से ही समुद्र रसातल में जाता है तब मेघ अपना जल ऊँच नीच सब को देता है इसलिये वह आकाश में गर्जना करता है । ३-जैसे मनुष्य गुणी होने पर भी उसमें कई ऐसे भी अवगुण पड़जाते हैं कि वह सब गुणों को दबा देते हैं । इसी प्रकार दान देने वाले दातार के लिये १-अनादर से देना २-विलम्ब करके देना ३-मुँह चढ़ा कर देना ४-कटु बचन बोलना ५-दान देने के बाद पश्चाताप करना एवं पांच दूषण होते हैं इन दूषणों से युक्त दान करने का उतना फल नहीं होता जो होना चाहिये । ४-थोड़ा दान करने बालों में भी कइ गुण होता है जैसे १-पात्र देख प्रसन्न होना, २-श्रादर सत्कार करना, ३-उदारता एवं बहुमान पूर्वक दान देना, ४-दान करने के बाद खुश होना और विशेष में ५-दान की बात को गुप्त रखना यह पांच दानेश्वर के भूषण हैं । इनके संयुक्त दान देने से महान पुण्य होता है। सुपात्र में दान देने से अनेक गुण प्राप्त होते हैं । जैसे दर्शन की शुद्धि, ज्ञान की वृद्धि, चारित्र की ७५४ [ दानधर्म का उदार व्याख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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