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वि० सं० ८३७८६२]
[भगवान पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास
नहीं गलने
कारण श्रागत श्रमण समुदाय व सकल संघ आचार्यश्री की अमृतवाणी का ही श्रवणेच्छुक था। दूसरा वह जमाना ही विनय व्यवहार का था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता को देखकर ही आगे कदम बढ़ाता था। अतः किसी ने भी बोलने का सो साहस नहीं किया पर आचार्यश्री की इस अनुपम उदारता के लिये सब ने प्रसन्नता प्रगट की। तत्पश्चात् सूरिजी म० ने अपना प्रभावोत्पादक, हृदयस्पर्शी वक्तृत्व प्रारम्भ किया। सर्व प्रथम श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर प्रभृति प्रभावक आचार्यों के श्रादर्श इतिहास को बड़े जोशीले शब्दों में सुनाया! उन महापुरुषों ने धर्म प्रचार के लिये जिन २ कष्टों को सहन किया है। उनमें से एक सहस्रांश कष्ट भी हमको धर्मोद्योत के कार्यों में प्राप्त नहीं होता है। उन प्राचार्य देवों ने जिन २ प्रान्तों में धर्म के बीज बोये वे आज फले फूले, फलकुसुमादि ऋद्धि समृद्धि समन्वित चतुर्दिक में लहराते हुए दीखते हैं। इसका एक मात्र कारण श्रमण वर्ग का तत्तत् प्रान्त में परिभ्रमन कर धर्मोपदेश रूप जल का सींचन करना ही है । विधर्मियों के अनेक आक्रमणों के सामने हमारे श्रमण वर्गखव दट कर रहे हैं और उनकी कहीं पर दी इसका मुझे बहुत हर्ष है। इतना ही क्यों पर मैं स्वयं प्रान्तों २ में परिभ्रमन कर मुनियों के प्रचार कार्य के अपनी आंखों से देखकर आया हूँ अतः श्रमणसंघ के लिये मेरे हृदय में बड़ा भारी गौरव है किन्तु रंज इस बात का है कि कुछ श्रमणों ने सिंह के रूप में भी शृङ्गाल के समान चैत्यों में स्थिरवास कर अपने आचार व्यवहार को एक दम कुत्सित बना दिया है। इससे वे अपनी आत्मा के अहित के साथ ही साथ इतर अनेक
आत्माओं का भी अहित कर रहे हैं। श्रमणों ! भगवान महावीर ने आप पर विश्वास कर शासन को आपके ताबे में दिया है । यदि, आप सच्चे वीरपुत्र हैं, अपने वीरत्व का आपको वास्तविक गौरव है आपकी धमणियों में वीरत्व का उष्ण रुधिर प्रवाहित हो रहा हो तो कटिबद्ध होकर शासन प्रभावना एवं प्रचार के समराङ्गण में कूद पड़िये । आज सौगतानुयायियों की तो इतनी प्रबलता रही भी नहीं है। वह तो मृत्यु शय्या पर पड़ा हुधा चरम श्वास ले रहा है पर वैदान्तियों के अपने ऊपर सफल आक्रमण हो रहे हैं अतः अपने को भी कमर कस कर यत्र तत्र सर्वत्र उनकी दाल नही गलने देने का प्रयत्न करना चाहिये । यदि इस भयानक संघर्ष के समय में हम यों ही गफलत में रह गये तो शासनोत्कर्ष के बजाय शासनापकर्ष ही है। पूर्वाचार्यों के पवित्र कुल के लिये शिथिलता कलंक रूप ही है अतः अपने कर्तव्यों का विचार अपने को अपने आप ही कर ले चाहिये । अभी तो सावधान होने का समय है अन्यथा कुछ समय के पश्चात् अपनी ही शिथिलता वा अपने को रह २ कर पश्चाताप करना पड़ेगा। जन समाज अपने को अकर्मण्य, प्रमादी, निरुत्साही, निस्तेज समझेगा अतः धर्म प्रचार के कार्यों में चैत्यवास की स्थिरता व आचार व्यवहार की शिथिलता को तिलाञ्जली देकर अपने को अपने आप अपने कर्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर हो जाना चाहिये। इस प्रकार यानि श्रमण वर्ग के लिये मार्मिक उपदेश देने पर प्राचार्यश्री ने दो शब्द श्राद्ध समुदाय के लिये भी कहे-महानुभावों ! जैन शासन की रक्षा के लिये चतुर्विध संघ की स्थापना कर आधी जुम्मेवारी श्राद्ध वर्ग पर भी रक्खी है। साधुओं के जीवन व प्राचार व्यवहार विषयक पवित्रता श्रावकों पर भी निर्भर है। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्य की ओर ध्यान देता रहे तो श्रमण समुदाय में उतनी शिथिलता आ ही नहीं सकती। ठाणांग सूत्र में श्रावकों को साधुओं के माता पिता कहा है इसका कारण भी यही है कि कोई साधु अपने पवित्र मार्ग से च्युत हो जावे तो माता पिता के भांति हर एक उपायों से श्रावक च्युत हुए साधु को सन्मार्ग पर ला सकते हैं।
सूरीश्वरजी के उक्त मार्मिक, हृदयग्राही उपदेश का प्रभाव उपस्थित चतुर्विध संघ पर इस कदर पड़ा -उनके हृदय में बिजली की भांति नूतन ज्योति चमक उठी। वे अपने कर्तव्य धर्म का गहरा विचार करने लगे तो आचार्यश्री के उपदेश का एक २ शब्द उन्हें महत्वपूर्ण तथा आदरणीय ज्ञात होने लगा। सूरीश्वरजी का कथन उन्हें सौलह आना सत्य प्रतीत हुआ। वे सूरीश्वरजी की प्रशंसा करते हुए कहने लगे-अहो ! वृद्धावस्था जन्य ऐन्द्रीय शक्तियों की निर्बलता होने पर भी आपश्री ने सारे आर्यावर्त की प्रदक्षिणा कर डाली तो क्या १३३८
सूरीश्वरजी का सचोट उपदेश
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