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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १२३७-१२६२
अपना कर्तव्य इसी प्रकार धर्म प्रचार करने का नहीं हैं ? वास्तव में अपन लोग अपने मार्ग से स्खलित हो गये हैं अतः आचार्यश्री के उपदेश को शिरोधार्य करके अपने को भी अपने कर्तव्य पथ में अग्रसर होजाना चाहिये । इस तरह सूरीश्वरजी के उपदेश को सक्रिय कार्यान्वित रूप देने का विचार करते हुए आचार्यश्री की पुनः पुनः प्रशंसा करने लगे । पश्चात् भगवान महावीर को और आचार्य रत्नप्रभसूरिजी की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई।
दूसरे दिन एक सभा और भी हुई । उसमें योग्य मुनियों के योग्य पदाधिकारों के विषय में और साधुओं के पृथक २ क्षेत्र में विहार करने के विषय में विचार किया गया। इस प्रकार श्रमण सभा का कार्य सानन्द सम्पन्न होने पर संघ विसर्जित हुआ। उपकेशपुरीय श्रीसंघ ने आगन्तुक संघ का खूब ही सन्मान किया और योग्य पहिरावणी देकर उन्हें विदा किया।
उपकेशपुर श्रीसंघ को अपने कार्य में सफलता मिल जाने के कारण आशातीत प्रसन्नता हुई। उन्होंने आचार्यश्री के परमोपकार की एवं अनुग्रह पूर्ण राष्ट की भूरि २ प्रशंसा की। इस सभा के पश्चात् श्राचार्यश्री का विहार भी प्रायः मरुभूमि में ही होता रहा । केवल एक बार मथुरा और एक बार संघ के साथ शत्रुञ्जय की यात्रा का उल्लेख पट्टावलियों में इस अवधि के बीच-मिलता है। अन्त में आपश्री ने उपकेशपुर में ही अपने सुयोग्य शिष्य उपाध्याय कल्याणकुम्भ मुनि को सूरिमन्त्र की आराधना करवाकर चतुर्विध श्रीसंघ के समद भगवान महावीर के चैत्य में विक्रम सं० ८६२ के माघ शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन शुभ मुहूर्त में सूरि पद से अलंकृत कर परम्परानुक्रम से आपका नाम सिद्धसरि रख दिया श्राप स्वयं २७ दिन के अनशन पूर्वक पञ्च परमेष्टि का स्मरण करते हुए समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये ।
आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रतिभाशाली तेजस्वी प्राचार्य हुए। आपने अपने ५५ वर्ष के शासन में जैनधर्म की बहुत ही अमूल्य सेवा की। आपकी शासन सेवा का वास्तविक वर्णन करने में साधारण मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति जैसे समर्थ भी असमर्थ हैं।
इस उपकेश गच्छ में अजैनों को जैन बनाने की प्रवृति शुरु से ही चली भा रही थी और इस गच्छ में जितने प्राचार्य हुए उन्होंने थोड़े बहुत संख्या में अजैनों को जैन बनाने का क्रम चलु ही रखा था इसका मुख्य कारण यह है कि इस गच्छ के प्राचार्यों के किसी एक प्रान्त का प्रतिबन्ध नहीं था वे प्रत्येक प्रान्त में विहार किया करते थे। दूसरा इस गच्छ में शुरू से ही एक आचार्य होने का रिवाज था और सब साधु उन एक प्राचार्य की आज्ञा में विहार करते थे अतः जहां उपकेशवंश की थोड़ी घणी बस्ती हो वह उनके मुनि गण विहार करते ही रहते थे जब तक वगेचा को अनुकूल जलवायु मिलता रहता है वह हरावर गुजझार रहता है जैसे अन्य लोगों में पृथ्वी प्रदिक्षण देने का व्यवहार था वैसे इस गच्छ के आचार्यों के सूरिपद पर
आरूढ़ होने पर वे कम से कम एकवार तो सब प्रान्तों में विहार कर वहाँ के चतुर्विध श्रीसंध की सार सम्भार कर ही लेते थे।
उन आचार्यों को इस बात का भी गौरव था कि हमारे पूर्वाचार्यों ने महाजन संघ की स्थापना की थी उनका पोषण एवं वृद्धि भी की थी अतः उनका यह कर्तव्य ही बन जाता था कि वे प्रत्येक प्रान्त में विहार कर अजैनों को जैन बनाकर उनकी शुद्धि कर महाजन संघ के शामिल मिला ही देते थे उस समय का महा. जन संघ भी इतना उदार एवं दीर्घदृष्टि वाला था कि नये जैन बनने वालों के साथ बड़ी ही साइनुभूति वात्सल्यता का व्यवहार रखते थे और जैन बनते ही उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार चनु कर देते थे
और हर तरह से उनकों सहायता पहुँचा कर अपने बराबरी का बनाना चाहते थे-तब ही तो लाखों की संख्या का महाजनसंघ करोड़ों की संख्या तक पहुंच गया था श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज बड़े ही प्रभावशाली आचार्य थे आपका श्रीसंघ पर बड़ा भारी प्रभाव था आपने पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित शुद्धि प्रजैनों को जैन बनाने की मशीन
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