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________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अपनी माँ से भी कहता हूँ कि आपका मेरे प्रति पक्का प्रेम है तो आप भी गुरु महाराज के चरणों की शरण लेकर आत्म कल्याण करें। किसका बेटा और किसके मां बाप यह तो एक स्वप्न की माया है न जाने किस गति से आये और किस गति में जावेंगे यह मनुष्य जन्मादि अनुकूल सामग्री बार बार मिलने कि नहीं है। आपने सुना होगा सच्ची प्रीति तो जम्बुकँवर के माता पिता और स्त्रियों थी की उन्होंने अपने प्यारे पुत्र के साथ दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया इत्यादि । ठाकुरसी अपने माता पिता से बातें कर रहा था और एक तरफ उसकी छ:मास की परणी हुई स्त्री बैठी थी और अपने पतिदेव की सब बात सुन रही थी। जिससे उनको बड़ा ही दुःख हो रहा था । शाह जगा ने कहा बेटा तू भी जम्बुकुंवर बनना चाहता है । बेटा ने कहा पिताजी जम्बुकुँवर तो तद्भव मोक्षगामी था परन्तु भावना तो एक मेरी क्या पर सब की ऐसी ही होनी चाहिये। शाह जगा तो ठाकुरसी के वचन सुन मंत्रमुग्ध बन गया। अव ठाकुरसी को क्या जवाब दे इसके लिये वह विचार समुद्र में गोता लगा रहा था आखिर में कहा चलो भोजन तो करलो फिर इसके लिये विचार किया जायगा ! बाप बेटा ने साथ में बैठकर भोजन कर लिया बाद बाप तो गया दुकान पर और बेटा गया अपने महल में वहाँ पर ठाकुरसी की स्त्री थी उसने अपने पति को खूब कहा पर ठाकुरसी ने उसे इस कदर समझाई कि उसने अपने पतिदेव का साथ देना स्वीकार कर लिया । रात्रि के समय सेठ सेठानी ने आपस में विचार किया कि अब क्या करना चाहिये । ठाकुरसी ने तो दीक्षा का हट पकड़ लिया है । सेठानी ने कहा कि केवल ठाकुरसी ही क्यों पर ठाकुरसी की बहू भी दीक्षा लेने को तैयार होगई है । सेठ ने कहा यदि ऐसा ही है तो फिर अपने घर में रहकर क्या करना है आखिर एक दिन मरना तो है ही जब ठाकुरसी और उसकी औरत इस तरुणावस्था में भोग विलास छोड़ दीक्षा लेते हैं तो अपन तो मुक्त भोगी हैं इत्यादि । सेठानी ने कहा दीक्षा का विचार तो करते हो पर दीक्षा पालनी सहज बात नहीं है। इसका पहिले विचार कर लीजिये । सेठजी ने कहा कि इसमें विचार जैसी क्या बात है । इतने हजारों साधु साध्वियां दीक्षा पालते हैं वे भी तो एक दिन गृहस्थ ही थे। दूसरे हम व्यापार में भी देखते हैं कि थोड़ा बहुत कष्ट बिना लाभ भी तो कहां है इत्यादि दोनों का विचार पुत्र के साथ दीक्षा लेने का होगया । बस शाहजगा ने अपने पुत्र जोगा को सब अधिकार देदिया और जो सात क्षेत्र में द्रव्य देना था वह देदिया तथा जोगा ने अपने माता पिता एवं लघु वान्धव की दीक्षा का महोत्सव किया और सूरिजी ने ठाकुरसी उनके माता पिता स्त्री तथा १३ नरनारी एवं १७ मुमुक्षुओं को शुभ मुहूर्त में दीक्षा देदी और ठाकुरसी का नाम अशोकचन्द्र रख दिया। मुनि अशोकचन्द्र वड़ा ही त्यागी वैगमी जितेन्द्रिय था उसको ज्ञान पढ़ने की तो पहिले से ही रुचि थी। सरस्वती देवी की पूर्ण कृपा थी अतः विनय भक्ति करके थोड़े ही दिनों में वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर धुंरधर विद्वान् बन गया आपकी व्याख्यान शैली इतनी मधुर और प्रभावोत्पादक थी कि बड़े बड़े राजा महाराजा आपके व्याख्यान सुनने को लालायित रहते थे। शास्त्रार्थ में तो आप इतने सिद्ध हस्त थे कि कई राजाओं की सभा में वादियों को पराजित कर जैन धर्म की ध्वजा पताका फहगई थी। आचार्य देवगुप्त सूरि ने अपनी अन्तिमवास्था में देवी सच्चायिका की सम्मति से माडव्यपुर के डिडु गौत्रीय शाह ठाकुरसी आदि श्रीसंघ के महोत्सव पूर्व मुनि अशोकचन्द्र को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया। आचार्य सिद्धसूरि महान प्रभाविक एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक हुये । श्राप विहार करते हुए एक [ ठाकुरसी अपने माता पिता के साथ दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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