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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७७०-८००
होजाता है । ऐसा था नवयुवक ठाकुरसी । सूरिजी ने जितने पोइन्ट बतलाये ठाकुरसी ने उस पर खूब विचार किया और आखिर उसने निश्चय कर लिया कि अनुकूल सामग्री के मिलने पर भी कल्याणमार्ग साधन नहीं किया जाय तो भवान्तर में अवश्य पश्चाताप करना पड़ेगा ? जप अनंत काल से भी यह जीव विलास से तृप्त नहीं हुआ तो एकभव से तो होने वाला भी क्या है ? अतः इन विषय भोगों को तिलांजलि देकर सूरिजी के चरण कमल की शरण लीजाय की अपने को सूरिजी भव समुद्र से पार पहुँच देंगा इत्यादि ।
सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ तो सूरिजी की प्रशंसा एवं वंदन कर परिषद विदा हुई पर ठाकुरसी अपने विचार में इतना तल्लीन होगया की उसके माता पिता चले गये जिसकी भी उसे सुधी नहीं रही । सब लोगों के जाने पर ठाकुरसी ने कहा पूज्यवर ! आज तो आपने बड़ी भारी कृपा की कि मोह निद्रा में सोते हुओं को जागृति कर दिये मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में दीक्षा लेकर अपना कल्याण सम्पादक करूँ। सूरिजी ने कहा 'जहा सुखम' पर धर्म कार्य में विलम्ब मत करना क्योंकि अच्छे कार्य में कई विघ्न उपस्थित होने की संभावना रहती है अतः शास्त्र में कहा है 'धर्मस्यत्वरतागति'
सूरिजी को वंदन कर ठाकुरसी अपने मकान पर आरहा था पर उसके दिल में सूरिजी का व्याख्यान रम रहा था । भाग्यवसात् चलते २ उसके पैरों के बीच अकस्मात् एक दीर्घकाय सर्प श्रानिकला जिसकी ठाकुरसी को खबर तक नहीं पड़ी पर जब सर्प पैरों के बीच आया तब जाकर मालूम हुआ। वह दूर होकर सोचने लगा कि यदि यह सर्प काट खाता तो मैं यों ही मरजाता। अतः ठाकुरसी का वैराग्य दुगणित होगया। वहाँ से चलकर घर पर आया और माता को सर्प की बात कही जिसको सुन माता ने बहुत फिक्र किया और कहा बेटा ! गुरु महाराज की कृपा से आज तू बच गया है । बेटा ने कहा हाँ माता तेरा कहना सत्य है मैं गुरुदेव की कृपा से ही बचा हूँ अतः आप आज्ञा दीरावे कि मैं गुरु महाराज की सेवा करूँ ! माता ने कहा बेटा इस में आज्ञा की क्या जरूरत है। तू खुशी से गुरु महाराज की सेवा कर बेटा ! ऐसे गुरु महाराज का संयोग कब मिलता है इत्यादि । माता विचारी भद्रिक थी बेटा की गूढ बात को वह जान नही सकी। बेटा ने कहा बस माता मैं तेरी प्राज्ञा ही चाहता था इतना सुनते ही माता बोली कि बेटा किस बात की आज्ञा चाहता था ? बेटा ने कहा गुरु महाराज के चरणों की सेवा करने की। बेटा तू क्या कहता है मैं समम न सकी गुरु महाराज की संवा तो सब ही करते हैं। माता ! मैं जीवन पर्यन्त गुरु महाराज के चरणों में रह कर संवा करना चहता हूँ। जैसे उनके और शिष्य करते है।
माता- तब क्या तू गुरु महाराज का चेला बनना चाहता है ?
पुत्र-हाँ माता, मैंने जब ही तो आज्ञा मांगी थी और तुमने श्राज्ञा देदी है। मां बेटा बात करते ही थे इतने में शाह जागा घर पर आगया। सेठानी ने कहा आपका बेटा क्या कहता है, सेठानी के आंखों से आँसुओं की धारा बहने लग गई जिसको देख कर सेठजी ने कहा बेटा क्या बात है. ? सेठानी ने कहा आज ठाकुरसी के पैरों के बीच साप श्रागया था मैंने कहा कि गुरु महाराज की कृपा से तू बच गया अतः गुरुदेव की सेवा किया कर बस इतनी बात पर यह दीक्षा लेने को तैयार होगया है। आप अपने बेटे को समझाइये धरना मेरा प्राण छुट जायगा। शाह जगा ने ठाकुरसी को बहुत समझाया पर ठाकुरसी के वैराग मसानिया नहीं था पर वैराग्य था अतरंग का । ठाकुरसी ने कहा पिताजी यदि मैं सांप के कारण मर जाता तो आप किसको समझाते ? भला थोड़ी देर के लिये श्राप मुझे मर गया ही समझ लीजिये । मैं तो आप से और
ठाकुरसी और उसकी माता का संवाद ]
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