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________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास परन्तु भाग्यवसात् घर पर जमाई आगया अतः चौथा घेवर उसको खिला दिया। बाद हलवाई घेवर की उम्मेद पर स्नान कर मकान पर आया । औरत ने कहा कि तीन घेवर तो अपने २ हिस्से के हम सबने खा लिये एक आपके लिये रक्खा था पर जमाई घर पर आगये, आपके हिस्से का घेवर उनको खिला कर घर की इज्जत बढ़ाई । यह सुन कर हलवाई निराश होगया । उधर राज में घेवर तोला गया वो चार घेवर कम आये । बस, एक दूत को हलवाई के पीछे भेजा और हलवाई को बुलाकर खूब पीटना शुरू किया। उसने कहा कि घेवर मैंने चुराये पर मैंने खाये नहीं, खाये घरवालों ने अतः पीटना हो तो उन्हें पीटो। जब घरवालों को बुलाया तो उन्होंने कहा कि हमने कब कहा था कि तुम चुराकर घेवर लाना अतः हम निर्दोष हैं। आखिर सजा हलवाई को सहन करनी ही पड़ी। इस उदाहरण से आप समझ सकते हो कि कर्म करेगा उसे ही दुःख भोगना पड़ेगा। अतः कर्म करते समय इस उदाहरण को खयाल में रखे श्रोतागण ! कई मनुष्य जन्मादी लेकर तृष्णा के वशीभूत हो धन एकत्र करने में हिताहित का भान भूल जाते हैं पर उन लोभानन्दी को कितना ही द्रव्य देदिया जाय तो भी उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती है । सुवन्नरुप्पस्सउपव्या भावे, सियाहु केलास समा असंखाय । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छाहु आगाससमा अणंताय॥ न सहस्राद्भवे तुष्टिर्न लक्षन्न 'च कोटिना । न राज्यान्ने देवत्वा न्नेन्द्रत्वादपि देहिनाम् ।। धन संसार में असंख्य है पर तृष्णा अनंत है वह कब शान्त होने वाली है अतः मनुष्य को चाहिये कि संसार के मोहजाल को तिलांजलि देकर शीघ्रातिशीघ्र आत्मकल्याण सम्पादन करने में लगजावे फिर इसमें भी विशेषता यह है कि स्वकल्लाण के साथ पर कल्याण की भावना वाले को कुंवार अवस्था एवं सारुण्यपने में चेतना चाहिये । शास्त्रकारों ने कहा है कि:"परि जूरइ ते सरीरयं केसा, पंडुराय हवंतिते । से सव्व वलेय हावई, समयं गोयमा ! मा पमायए "जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वढ्ढइ । जाधिदिया न हावंति, तावधम्म समायरे ॥ महानुभावों ! कालरूपी चक्र शिरपर हमेशा धूमता रहता है न जाने कहाँ किस समय धावा बोल दे अतः विलम्ब करने की जरूरत नहीं है। ऐसा सुअवसर हाथों से चले जाने पर कोटि उपाय करने से भी शायद् ही मिलसके ? फिर पछताने के सिवाय कुछ भी नहीं रहेगा । इसलिये तीर्थङ्करों गणधरों और पूर्वाचार्य ने पुकार पुकार कर कहा है कि आत्म कल्याण की भावना वाले मुमुक्षुओं को क्षणमात्र की देरी नहीं करनी चाहिये "अरई गंडं विसुईया अयंके विविहा फुसंतिते। विहडइ विद्ध सइ ते सरीरंयं समय गोयमा । मा पमायए । वोच्छिद सिणेहमप्पणो, कुमुदं सारइयं च पाणियं । से सव्व सिणेहवज्जिए, समयं गोयमा। मा पमायए। यदि संसार त्याग कर आत्म कल्याण न करेंगा उसको आखिर पश्चाताप करना पड़ेगा जैसे अवले जह भार बाहए, मामग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम । मा पमायए।" इत्यादि सूरिजी ने वैराग्यमय देशना दी जिसको सुनकर जनता एक दम चौंक उठी और संसार की तरफ उनको घृणा श्राने लगी। ऐसा वैराग्य रहता क्षणमात्र ही है। हो, जिसके भवस्थिति परिपक्क होगई हो संसार परत होगया हो और मोक्ष जाने की तैयारी हो उसके रोम रोम में खून के साथ वैराग्य मिश्रित ७९४ [ सरिजी का प्रभावशाली व्याख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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