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आचार्य सिद्धबरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७७०-८००
होजाय तब शादी करनी ठीक है । सेठानी ने कहा कि १६ वर्ष के की शादी करना कौनसा अनुचित है। सोलह वर्ष के की शादी तो सब जगह होती है । मेरी इच्छा है कि ठाकुरसी की शादी जल्दी की जाय । आयुष्य का क्या विश्वास है एक बार पुत्रवधू को आँखों से दाख तो लू इत्यादि । सेठानी का अत्याग्रह होने से सेठजी ने उसी नगर में बलाह गोत्रिय शाह चतरा की सुशील लिखी पढ़ी विनयादि गुणवाली जिनदासी के साथ बड़ी ही धामधूम से ठाकुरसी का विवाह कर दिया। बस, अब तो माता की शंका मिट गई और सब मनोरथ सिद्ध होगये। इधर तो ठाकुरसी माता का सुपुत्र था और उधर जिनदासी विनयवान लज्जावान् लिखी पदी चतुर और गृहकार्य में दक्ष बहू आगई फिर तो माता जैती फूली ही क्यों समावे । संसार में जो सुख कहा जाय वह सब माता जैती के घर पर आकर एकत्र ही होगये।
___ठाकुरसी के लग्न को पूरे छः मास भी नहीं हुये थे कि धर्मप्राण धर्ममूर्ति लब्धप्रतिष्ठित धर्मप्राचारक अनेक विद्वान मुनियों के साथ श्रापार्य देवगुप्तसूरि का शुभागमन जावलीपुर की ओर हुआ । जब वहाँ के श्रीसंघ को यह शुभ समाचार मिले तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा । उन्होंने सरिजी का स्वागत एवं नगरप्रवेश का महोत्सव बड़े ही समारोह से किया जिसमें शाह जगा एवं ठाकुरसी भी शामिल थे। सूरिजी का मंगलाचरण इतना सारगर्भित था कि श्रवण करने वालों को बड़ा ही श्रानंद आया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण पर विशेष होता था एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में संसार की धसारता बतलाते हुये फरमाया कि तीर्थङ्करदेवों ने संसार को दुःखों का खजाना इस वास्ते बतलाथा है किजम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणणि य । अहो ! दुक्खो हुँ संसारों, जत्थ किस्सं तिजंतुणो॥ जरा मरण कंतारे चाउरते भयागरे । मए सोढाणि भीमाणि, जम्माणि मरणाणि य ॥
यह दुःख उत्पन्न होता है इन्द्रियों से । इन्द्रिय के विषय को दो विभाग में विभाजित कर दिया जाय तो एक काम और दूसरा भोग-जैसे श्रोत्रइन्द्रिय और चक्षु इन्द्रिय कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय भोगी हैं। इस काम और भोग से ही जीव दुख परम्परा का संचय कर संसार में भ्रमण कर रहा है। जब जीव को अज्ञान एवं भ्रान्ति होजाती है तब वे दुःख को भी सुख मान लेते हैं अर्थात् हलाहल जहर को अमृत मान लेते हैं जैसे कि
जहां किंपाकफलाणं, परिणामो ण सुंदरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो ण संदरो॥ सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामेय पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गरं ॥
कई काम भोग से विरक्त होते हुये भी माता पिता स्त्री आदि कुटुम्ब परिवार की माग में फंस कर कर्मबंध करते हैं जैसे
माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ताय ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतितस्स सकम्मुणा ॥
पर यह नहीं सोचते हैं कि जब कर्मोदय होगा तब यह माता पितादि मेरी रक्षा कर सकेगे या मैं अकेला ही कर्म भुक्तुंगा । जैसे एक हलवाई ने किसी राजा के यहाँ गेवर बनाया पर उसके दिल में बेईमानी आगई कि गरमागरम चार गेवर चुरा कर अपने लड़के के साथ घर पर भेज दिये । औरत ने समझा कि मैं पुत्र पुत्री और पति एवं घर में चार जने हैं, और चार घेवर हैं एक एक घेवर हिस्से में आता है तो फिर गरमागरम न खाकर स्वाद क्यों गमावें । उन तीनों ने तीन घेवर खा लिये, एक हलवाई के लिये रख दिया
आचार्य श्री का प्रभावशाली व्याख्यान ] Jain Education Inteooral
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