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________________ वि० सं० १९२८ - ११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वि० सं० १०१० में श्री ऋषभदेव प्रभु के चैत्य तथा चन्द्रप्रभ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाकर धर्म का उद्योत किया । और चन्द्रावती नगरी के मंत्री कुंकुण के बनाये मन्दिर की प्रतिष्ठा करवा कर मंत्री को प्रतिबोध कर उसको भगवती जैन दीक्षा से दीक्षित किया इत्यादि । "चरित्र शुद्धिं विधिवज्जि नागमा, द्विधाय भव्यान भितः प्रबोधयन् । चकर जैनेश्वर शासनोन्नतिं यः शिष्य लब्ध्या भिनवो नु गौतमः ॥ नृपाद शाग्रे शरदां सहस्त्रे १०१०, यो राम सैन्य हृ पुरे चकार । नाभे चैत्येष्ठ तीर्थराज - बिंबं प्रतिष्टितां विधिवत् सदनयेः ॥ चंद्रावती भूपति नेत्र कल्पं, श्रीकुंकुरणं मंत्रिण मुच्च ऋद्धिं । निर्मापितो तुंग विशाल चैत्य, योऽदीक्षयत् बुद्धि गिराप्रबोध्यः ॥ वि० सं० १०२९ में धारानगरी में प्रखर पण्डित धनपाल नामका कवि जो जैनधर्म का परमोपासक था जिसने देशी नाम माला का निर्वाण किया था आपके लघु भ्राता शोमन ने आचार्य महेन्द्रसूरि के पास दीक्षा ली। आप बड़े ही ज्ञानी एवं कवि हुए थे आपने ही धनपाल को जैनधर्म में श्रद्धा सम्पन्न बनाया । आपके बनाये चौबीस तीर्थङ्कर के चैत्यवन्दन स्तुतियां वर्तमान में विद्यमान हैं। वि० सं० १०६६ थिरापद्र गच्छीय वादी वैताल शान्तिसूरि जिन्होंने धारानगरी के राजा भोज की सभा के पण्डितों को पराजय किया था जिसके उपहार में राजा ने सवालक्ष मुद्राएँ प्रदान की पर आप तो थे निर्मन्थ । अतः उस द्रव्य को देव मन्दिर में लगाया पं० धनपाल की तिलक मज्जरी का संशोधन आपने ही किया था तथा उतराध्ययन पर टीका रची और १०९६ में स्वर्ग पधारे । ३७ - आचार्य देवसूरि- - आप आचार्य सर्वदेव सूरि के पट्टधर थे "रूपश्री रिती भूपप्रदत विरुदधारी" अर्थात् राजाने आपको रूपश्री विरुद दिया था आपश्री बड़े ही चमत्कारी जैन शासनमें प्रभाविक आचार्य हुए। ३८ - आचार्य सर्वदेवसूरिरे- आप देवसूरि के पट्टधर आचार्य हुए आपश्री ने जैनशासन का उद्योत किया आपके शिष्य समुदाय भी गहरी तादाद में थे उन्हों के अन्दर से मुनि यशोभद्र और नेमिचन्द्रादि आठ योग्य मुनियों को आचार्य पदार्पण कर शासन के उत्कर्ष को बढ़ाया। ३६–श्राचार्य यशोभद्रसूरि और नेमिचन्द्रसूरि एवं दोनों आचार्य सर्वदेवसूरि के पट्टधर हुए आप दोनों आचार्य महान् प्रतिभाशाली थे आपके शासन समय नौ अंग वृतिकार आचार्य अभयदेवसूरिजी हुए आचार्य अभयदेवसूरि महा प्रभाविक आचार्य हुए आपने नौ अङ्गों पर टीका रचने के अलावा स्तम्भन तीर्थ भी प्रकट किया था आपश्री का जीवन चरित्र प्रभाविक चरित्र के अनुसार पूर्व लिख आये हैं । भगवान् महावीर की परम्परा के उपरोक्त ३६ पट्टधर आचार्यों की नामावली तो हम क्रमशः लिख ये हैं जो कि एक चन्द्रकुल की परम्परा कही जा सकती है। इनके अलावा नागेन्द्रकुल विद्याधर कुल और नकुल के परम्परा के आचार्य तथा इन आचार्यों की शाखा के रूप में कई गच्छ पृथक् निकले जैसे थरापद्रगच्छ, साढेरावगच्छ, हर्षपुरियागच्छ, पूर्णतालगच्छ, भावहडागच्छ, राजगच्छादि कई गच्छों में भी महान् प्रभाविक आचार्य हुए और उन्होंने शासन के उद्योत एवं प्रभावना के प्रभावशाली कार्य किये हैं तथा जैनधर्म के आधार स्तम्भ रूप ग्रन्थों की रचना भी की है। उन सबका विवरण जितना मुझे उपलब्ध हुआ है उस सबको आगे के पृष्ठों में यथाक्रमः दिये जायेंगे । यह बात मैं प्रस्तावना में लिख आया हूं कि मैंने जिस प्रकार इस ग्रन्थ को लिखने का आयोजन पहले से किया था पर कई कारण ऐसे उपस्थित हुए कि उसका पालन हो नहीं सका अतः जैसा सुविधा देखा वैसा ही आगे पीछे लिख दिया है फिर भी पाठकों को एक ग्रन्थ में सब बातें पढ़ने में सुविधा अवश्य हो गई हैं। १५१० Jain Education International For Private & Personal Use भगवान् महावीर की परम्परा के श्र Www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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