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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन 7
[ओसवाल सं० १५२८-१५७८
पहले यथा स्थान लिखना रह गया था वह यहाँ पर लिख दिया जाता है।
"मण १ परमोहि २ पुलाए ३ आहार ४ खवग ५ उवसम ६ कप्पे ७ संयम तिग ८ केवल ६ सिजणा १० य. जंबुम्मि बुच्छिण्णा ॥१॥
मनपर्यव ज्ञान, परमावधि ज्ञान, पुलाकलब्धि, पाहारिक लब्धि, खपकश्रेणी, उपशमश्रेणी, तीन संयम (प्रतिहार विशुद्ध सुक्षमसंपराय, यथाख्यात) केवल ज्ञान, और सिद्ध होना अर्थात् मोक्ष एवं दश बोल म० जम्भुस्वामि के पश्चात् विच्छेद हो गये।
एक समयं भगवा सकेसु विहरति सामगामे तेन खोपन समयेन निग्गन्त्थो नायपुत्तो पावायं अघुना काल कतो होति तस्स काल किरियाय भिन्न निग्गन्था द्विधिकजाता भंडनजाता कलहजाता विवादपन्ना अण्ण मण्णां मुख सतोहिं वितुदेत्ता विहरंति"
"मजिम निकाय बोद्ध ग्रन्थ से" उपरोक्त पाठ का सारांश मैंने पहले महात्मा बुद्ध के सम्बन्ध में जो इस पुस्तक में लिख दिया था जो मुझे मुख जबानी याद था पर अब उसका मूल पाठ भी मिल गया। उसको यहाँ लिख दिया जाता है। इस भ्रांति पूर्ण पाठ का समाधान उसी स्थान पर कर दिया है कि जहाँ इस की चर्चा की गई है यहाँ तो केवल उस ग्रन्थ का मूल पाठ ही लिखा है।
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dain = पूर्व में रहे हुए कुछ सम्बन्ध के लेख
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