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________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मन्दिर मूर्तियों पर खुदे हुए शिलालेख श्रीसद् उपकेशगच्छाचार्य विक्रम पूर्व ४०० अर्थात् वीराब्द ७० वर्ष से जैन भावुक भक्तों के बनाये मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं करवाते आये हैं उसमें कई शताब्दियों तक तो ऐसा जमाना गुजर गया था कि उस समय के लोग आत्माश्लाघा व नामवरी के भय से शिलालेख खुदाते ही नहीं थे । उस समय के राजा महाराजाओं ने भी बहुत से मन्दिर एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई थी पर वे अपना नाम नहीं खुदाते थे जैसे सम्राट् सम्प्रति ने सवालक्ष नये सन्दिर और सवा करोड़ मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं करवाई थी पर उन्होंने किसी एक मूर्ति पर भी अपना नामांकित नहीं करवाया था जब एक सम्राट् का ही यह हाल है तो साधारण मनुष्य तो अपना नाम कैसे खुदा सकता था अर्थात् शायद वे इस बात को शरम की बात ही समझते होंगे। खैर ! जब मूर्तियों पर नाम खुदाना शुरु हुआ तब उन मन्दिर मूर्तियों पर नाम खुदाया भी होगा पर उस समय की मन्दिर मूर्तियाँ बहुत कम रह गई इस का कारण शायद विधर्मियों की धर्मान्धता हो कि उन्होंने बहुत से मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट कर दिये हों उदाहरण के तौर पर हमारा पवित्र तीर्थ श्रीशत्रुअय है उस पर बहुत प्राचीन समय से ही मन्दिर थे और समय समय इसके उद्धार भी हए और नये नये मन्दिर भी बनवाये पर आज इतनी प्राचीन मन्दिर मूर्तियाँ वहाँ नहीं मिलती हैं। जैसा हाल मन्दिरों का हुआ वैसा ही शानों का हुआ। प्राचीन समय में जैन श्रमण सब झान मुख जबानी हो याद रखते थे । अतः उनको ग्रन्थ लिखने की आवश्यकता ही नहीं थी इतना ही क्यों पर लिखित पुस्तक अपने पास में रखने की भी सक्त मनाई थी यदि कोई रख भी ले तो उसके लिये प्रायश्चित का भी विधान किया है अतः जैन श्रमण सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रखते थे और अपने शिष्यों को आगमादि का ज्ञान भी मुख जबानी ही करवाते थे पर जब काल के बुरे प्रभाव से मनुष्यों की याद शक्ति कम होने लगी और केवल ज्ञान कण्ठस्थ ही रखने का आग्रह किया गया तो पागम विस्मृत होने के भय से प्राचार्यों ने पुस्तक पर लिखने की प्रवृति शुरु की। यह बात जैन शासन में खूब ही प्रसिद्ध है कि आर्य देवर्द्धिगणि तमाश्रमणजी ने वल्लभी नगरी में संघ सभा कर भागमों को पुस्तकारूद करवाया । यद्यपि श्रीक्षमाभमणजी के पूर्व भी पुस्तक के लिखे जाने के प्रमाण मिलते हैं पर क्षमाश्रमणजी के समय से तो जैन श्रमणों में आम तौर से पुस्तकें लिखना लिखवाना प्रारम्भ हो गया था और प्रामोग्राम ज्ञान भण्डार की स्थापना भी करवादी थी पर भाज हम ज्ञान भण्डारों को देखते हैं तो पुज्य क्षमश्रमणजी के समय के ही क्यों पर आपके पीछे भी कई शताब्दियों का लिखा हुआ एक प्रन्थ तो क्या पर एक पन्ना तक भी नहीं मिलता है। इसका कारण भी जैसे विधर्मियों ने मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट करदी वैसे ज्ञान भएडारों को भी अग्नि में जला कर पानी में सड़ा कर नष्ट कर डाले । यही कारण है कि प्राचीन समय के मन्दिर मूर्तियों और पागम प्रन्थ के साहित्य नहीं मिलते हैं। तथापि हमारे प्राचार्यों की परम्परा से धारणामान भी चला आ रहा था जैसे गा अपने शिष्यों को अपने पूर्वजों से चले आये कण्ठस्थ ज्ञान की शिष्य को शिक्षा देते थे जब वे शिष्य गुरु बनते थे तब वे भी अपने शिष्यों को वह ज्ञान याद करवा दिया करते थे और इस प्रकार परम्परा से चले आये ज्ञान को धारणाझान अर्थात् धारणा व्यवहार के नाम से कहते थे वह जैन शासन में बहुत प्रसिद्ध है और उसी शान के आधार पर पट्टावलियांदि ग्रन्थ लिखे गये थे। ___ कई कई प्राचार्यों के शासन में जितना काम होता वह लिख कर अपने पास में भी रखते थे कि भाचार्यश्री के शासन में किस किस भक्त श्रावक ने शत्रुञ्जयादि तीर्थों के संघ निकाले, किस श्रावक ने कितने Jain Edy Rernational For Private & उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ry.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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