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आचार्य सिद्धरि का जीवन ]
[श्रोसवाल सं० १५२८-१५७४
भगवान महावीर की परम्परा के २७ पट्टधरों का हाल तो हम ऊपर लिख आये हैं शेष यहाँ लिखा जाता है। सतावीसवें मानदेवसरिके समय वीरात १००० वर्ष सत्य मित्राचार्य के साथ पर्वो का ज्ञान हुआ । तथा आर्य नागहस्ति १ रेवतीमित्र २ ब्रह्मद्वीप ३ नागार्जुन ४ भूतदिन ५ और कालिकसूरि ६ एवं छः युग प्रधान यथाक्रमः से वनसेनसूरि और सत्यमित्र के बीच के अन्तर में हुए।
२८-आचार्य विवुधप्रभसूरि, आप प्राचार्य मानदेवसूरि के पट्टधर आचार्य हुए । २६-प्राचार्य जयानन्दसूरि, आप प्राचार्य विवुधप्रभसूरि के पट्टधर हुए।
३०-आचार्य रविप्रभसूरि, आप आचार्य जयानन्दसूरि के पट्टधर हुए। आप श्री ने वीरात ११७० अर्थात् विक्रम सं० ७०० वर्ष नारदपुरी नगरी में भगवान् नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई । तथा वीरात् ११६० वर्ष पीछे आचार्य उमास्वाति यु०प्र० आचार्य हुए।
३१-आचार्य यशोदेवसूरि-आप आचार्य रविप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य हुए आपके शासन समय में चैत्यवासी शीलगुणसूरि देवचन्द्रसूरि आचार्य हुए जिन्होंने बनराज चावड़ा की सहायता की और बनराज चावड़ा ने वि० सं०८०२ में अणहिल्ल पाटण की स्थापना की तथा राजा बनराज चावड़ा ने आचार्य शील गुणसूरि देवचन्द्रसूरि का महान उपकार समझकर तथा श्रीसंघ का संगठन बना रहने की गर्ज से श्रीसंघ के समक्ष एवं सम्मति पूर्वक यह मर्यादा बान्ध दी कि पाटण में चैत्यवासी आचार्यों की सम्मति लिये बिना कोई भी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकेगा इत्यादि । तथा इसी समय में वायट गच्छ के आचार्य बप्पभट्टिसूरि
न्होंने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध कर जैन बनाया। आपके एक रानी वैश्य पुत्री थी जिपकी संतान विशाद ओसवंश में शामिल करदी वे लोग राजा के कोठार का काम करने से कोठारी कहलाये। उनकी परम्परा में कर्माशाह चितौड़ में हुया जिसने पुनीत तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का सोलहवाँ उद्धार करवाया। आचार्य श्री का समय चैत्यवास का समय था और उस समय जैन समाज का भाग्य रवि मध्यान्ह में तपता था अर्थात् सब तरह से जैनसमाज उन्नति पर था।
३२-आचार्य प्रद्युम्नसूरि-आप आचार्य यशोभद्रसूरि के पट्टधर थे। श्राप श्री भी महान प्रभाविक आचार्य हुए।
३३-प्राचार्य मानदेवसूरि-श्राप आचार्य प्रद्युम्नसूरि के पट्टधर हुए थे। आपने उपधान विधि की रचना की।
३४-प्राचार्य विमलचन्द्रसूरि-पाप आचार्य मानदेवसूरि के पट्टधर थे।
३५--आचार्य उद्योतनसूरि-बाप आचार्य विमल चन्द्रसूरि के पट्टधर हुए थे-आपश्री भी जैन शासन में प्रतिभाशाली आचार्य हुए | आप एक समय अर्बुदाचल की यात्रार्थ पधार रहे थे रास्ते में टेलीग्राम के पास एक विशाल वटवृक्ष आया आपश्री ने वहीं पर निवास कर दिया तथा प्राचार्यश्री ने अपने पीछे शासन का रक्षण करने योग्य विद्वान का विचार कर रहे थे आपने अपने ज्ञान बल से सर्व श्रेष्ट शुभ मुहूर्त एवं निमित कारण जान कर वि० सं०६४ में मनिवर्य सर्वदेव को सरिपद से विभषित किया। कई कई स्थानों पर सर्वदेवादि मुनियों को आचार्य पद प्रदान किया भी लिखा है। आपश्री के वृद्धहस्त्तों से एवं शुभ निमित में दिया हुआ आचार्य पद शासन के लिये हितकारी हुआ इस समय के पूर्व इस परम्परा का नाम वनवासी गच्छ था पर सूरिजी ने वटवृक्ष के नीचे ठहर कर सूरि पद देने से वनवासीगच्छ का नाम वटगच्छ होगया।
"प्रधान शिष्य सन्तत्या, ज्ञानादि गुणैः, प्रधान चारितैश्व, वृद्धत्वा, बृहद्गच्छ इत्यादि __३६-प्राचार्य सर्वदेवसूरि आप प्राचार्य उद्योतन सूरि के पट्टधर थे परन्तु कई पट्टावली कर श्री प्रद्युम्नसूरि तथा मानदेवसूरि को पट्टवर नामावली में नहीं मानते हैं उनके हिसाब से ३६ वाँ नहीं पर ३४ वाँ पट्ट ही पाता है। प्राचार्य सर्वदेवसूरि अपने लब्धि सम्पन्न सुशिष्यों के परिवार से रामसेन्य नगर में पधारे वहाँ पर
भगवान महावीर की परम्परा
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