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________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ऐसा वरदान भी दिया था कि तुम लोग सदाचारी रहोगे वहां तक धन धान्य एवं कुटुम्ब से सदा समृद्धि शाली रहोगे । तदनुसार श्रीमालनगर के लोग बड़े ही धनाड्य थे उस नगर में कोटाधीश तो साधारण गृहस्थों की गिनती में गिने जाते थे तब लक्षाधिपतियों की तो गिनती ही कहां थी ? फिर भी पूर्व संचित कर्म तो सब के साथ में ही रहते हैं। श्रीमाल नगर में जैनधर्म की नींव तो सब से पहले भ० पार्श्वनाथ के पांचवें पट्टधर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने वीर निर्वाण से करीब चालीस वर्ष में डाली थी। उस समय श्रीमालनगर में सूर्यवंशी राजा जयसेन राज्य करता था उसने ब्राह्मणों के कहने से एक वृहद् यज्ञ का आयोजन किया जिसमें वलि देने के लिये लाखों पशुओं को एकत्र किये थे ठीक उसी समय प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि का पदार्पण श्रीमालनगर में हुआ। और आपने अहिंसा परमोधर्मः का सचोट एवं निडरता पूर्वक उपदेश दिया फलस्वरूप राजा-प्रजा के ९०००० घर वालों को जैन धर्म में दीक्षित कर जैन धर्म की नींव डाली। तत्पश्चात् राजा ने जैनधर्म का बहुत अच्छा प्रचार किया। राजा जयसेन के दो पुत्र थे। १-भीमसेन, जो अपनी माता के पक्ष में रह कर ब्राह्मण धर्म का उपासक बन गया था और दूसरा चंद्रसेन जो २ अपने पिता के पक्ष में रह कर जैन धर्म स्वीकार कर उसका ही प्रचार करने में सलंग्न रहता था । अतः दोनों भाईयों में कभी कभी धर्मवाद भी चलता रहता था। राजा जयसेन के स्वर्गवास होने के बाद, भीमसेन को राजा बनाया गया एवं भीमसेन के हाथ में राज सत्ता आते ही उसने धर्मान्धता के कारण जैनों पर कठोर जुलम गुजारना प्रारम्भ कर दिया । अतः चन्द्रसेन ने धर्मरक्षार्थ श्राबू के पास उन्नत भूमि पर एक नगर आबाद कर श्रीमालनगर के दुःख पीड़ित अपने सब साधर्मी भाइयों को उस नूतन नगर में ले आया और उस नूतन नगरी का नाम चंद्रावती रखा तथा प्रजा ने वहां का शासन कर्त्ता राजा चद्र सेन को मुकर्रर कर दिया। राजा चंद्रसेन की ओर से वहां वसने वालों को सब तरह की सुविधा होने से थोड़े ही समय में नगर खूब अच्छी तरह आबाद हो गया विशेषता यह थी की वहां के निवासी प्रायः सब लोग जैनधर्म को पालन करने वाले ही थे उनके आत्म कल्याण के लिये नूतन नगरी में कई जिनालय एवं उपाश्रय भी बनवा दिये थे। ___ इधर श्रीमलनगर से सब के सब जैन निकल गए बस, पीछे रहा ही क्या ? जब राजा भीमसेन ने अपने नगर को शून्यारण्यवत् देखा तब उनकी आंखें खुली कि मैंने ब्राह्मणों की बहकावट में आकर राजनीति को भूल कर जैनधर्म पालने वालों पर व्यर्थ जुल्म कर अपने ही हाथों से अपना अहित किया है पर अब पश्चाताप करने से क्या होने वाला था । खैर, बिना बिचारे करता है उसको पश्चाताप तो करना ही पड़ताहै । श्रीमालनगर के पहले से ही तीन प्रकोट थे पर नगर टूटने के बाद ऐसा प्रबंध किया कि पहले प्रकोट में कोटाधिश, दूसरे में लक्षाधिश और तीसरे प्रकोट में साधारण जनता इस प्रकार की व्यवस्था कर उस का नाम भीन्नमाल रख दिया जो राजा भीमसेन के नाम की स्मृति करवाता रहे । भीन्न माल में सूर्यवंशी राजाओं के पश्चात् चावड़ावंशी बाद गुर्जर लोगों ने राज किया था शायदकुछ समय के लिये भीन्नमाल हूणों के अधिकार में भी रहा था और बाद में परमारों ने भी वहां का शासन चलाया था। उपरोक्त लेख प्रस्तावना के रूप में लिख कर अब मैं मेरे उद्देश्यानुसार संठिया जाति का इतिहास लिखूगा। जो आज पर्यंत अंधेरे में ही पड़ा था। श्रीमालनगर में जैनधर्म के बीज ११७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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