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वि० सं० ७७८-८३७ }
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विक्रम की आठवी शताब्दी में भी भीन्नमाल नगर अच्छी तरह पाबाद था। वहां के निवासी वन, जन, धन से अच्छे सुखी थे एवं समृद्धशाली थे उस समय वहां पर भाण नामक राजा राज्य करता था, कोई-कोई राजाओं के मूल नाम के साथ उपनाम भी पड़ जाते हैं। इस कारण अच्छे २ विद्वान् भी भ्रम के चक्कर में पड़ कर गोता खाया करते हैं पर सूक्ष्म दृष्टि से शोध खोज करने पर पता मिल भी जाता है।
राजा भाण जैन धर्मोपासक राजा था आपके संसार पक्ष के काका श्रीमल्ल ने जैनदीक्षा ली थी जो सोमप्रभाचार्य के नाम से सुप्रसिद्ध थे उस समय भोन्नमाल में आचार्य उदयप्रभसूरि का आना जाना था और राजा पर आपका बहुत अच्छा प्रभाव था। आंचलगच्छपट्टावली से पाया जाता है कि उदयप्रभसूरि ने भी भीन्नमाल के ६२ कोटाधीशों को जैनधर्म की दीक्षा देकर जैन श्रावक बनाये थे इत्यादि भीन्नमाल में जैनों की अच्छी आबादी थी।
___जीवों को दुःख और सुख की प्राप्ति होना पूर्व संचित कर्मानुसार ही है भीन्नमाल में जैसे बहुत से लोग सुखी बसते थे तो वैसे कई दुःखी लोग भी रहते थे । दुख का मूल कारण अज्ञान है और अज्ञानी जीवों के दुःखोदय होने पर भी वे अज्ञान से पुनः दुःखों का ही संचय करते हैं। जब अज्ञानी जीवों को असह्य दुःख हो जाता है तब वे येन केन प्रकारेण प्राण छोड़ कर दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं और उन अज्ञानियों को अज्ञानमय मरण होने से उसका फल भी मिल जाता है जैसे उस समय एक तो मृतपति के पीछे धक् धक्ती आग में जल कर सती होना और दूसरी काशी जाकर करवत लेना।
भीन्नमाल में कई ब्राह्मण बहुत दुःखी थे उनमें से २४ ब्राह्मणों ने दुःख से मुक्त होने के लिये विचार किया कि काशी में गंगा किनारे के सरघाट पर करीब ५० मण लोहे की एक तीक्षण करवत रखी हुई है लोगे की मान्यता है कि उस करक्तसे मरने वाला सीधा ही स्वर्ग में जाकर देवताओं के सुखों का अनुभव करता है जैसे पति के पीछे उसकी पत्नी जीते जी धधकती हुई अग्नी में जल कर सती होने पर स्वर्ग के सुखों के प्राप्त करती है वे ब्राह्मण भी वहां जाकर करवत से मरने का निश्चय कर लिया और गुपचूप घर से निकल कर काशी के लिये रवाना भी हो गये पर शुभ कर्मों का उदय होनेसे रास्तेमें उन विनों की प्राचार्य श्रीउदयप्रभ सूरि से भेंट हो गई जब सूरिजी ने उन विनों के चित्त पर चिन्ता के चिन्ह देख कर उनसे कहने लगे
सूरिजी-विप्रो ! आज आप एकत्र होकर कहां जा रहे हो ?
विप्र-ग्लानी लाते हुए दबी जबान से कहने लगे पूज्य गुरुदेव ! संसार भर में केवल आप जैसे निग्रंथ महात्मा ही सुखी हैं आप के त्याग और तपस्या से इस भव और परभव में आप सुखी होंगे पर हमारे जैसे पामर प्राणी तो इस भव में दुःखी हैं और पर भव में भी दुःखी ही रहेंगे। इस असह्य दारुण दुःख से मुक्त होने की गरज से हम काशी जा रहे है वहा जा कर करवत लेकर प्राण मुक्त होंगे जिससे इस भव के दुःखों से मुक्त हो जायंगे और यहां से सीधे ही स्वर्ग में जाकर सुखी बनेंगे ऐसी अभिलाषा है ।
सूरिजी-इसका क्या सबूत है कि आप अपघात जसा नारकीय कृत्य करने पर भा स्वर्ग में जाकर सुखों का अनुभव करेंगे ?
विप्र-हमारी परम्परा एवं शास्त्र ही इस बात के साक्षि हैं और सैंकड़ों मनुष्य ऐसे करते आये हैं पर हमें दुःख है कि आप जैसे महात्मा इस धार्मिक कृत्य को अपघात एवं नरक का कारण बता रहे हैं ११७२
सूरिजी और ब्राह्मणों के सम्वाद
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