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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
सूरिजी-इस प्रकार अज्ञानता के वशीभूत होकर मरना अपघात नहीं तो और क्या है ? विप्र-क्या काशी जाकर करवत ले कर मरना अज्ञान मरण है ?
सूरिजी-यदि इस प्रकार मरने से ही स्वर्ग मिल जाता हो तो उस करवत के चलाने वाले स्वर्ग के सुखों से वंचित रह कर यहां दुःख क्यों भोग रहे हैं आपके पूर्व उन लोगों को करवत ले कर स्वर्ग पहुँच जाना था पर वे स्वर्ग न जाकर आप जैसे भद्रिक लोगों को ही स्वर्ग में भेजने की एक जाल रच रखी है ।
विप्र-महात्माजी ! आपही बतलाइये कि इनके अलावा हम दुःखों से कैसे छुटकारा पा सकते हैं ?
सूरिजी--महानुभावो ! दुखों से मुक्त होने में सब से पहले तो मनुष्य जन्म की आवश्यकता रहती है वह तो आपको प्राप्त हो ही गया है अब इसमें सद्धर्म और सदाचार की आवश्यक्ता है जो एक भव तो क्या पर भवोभव के दुःखों से मुक्त कर सकता है ।
विप्र-महात्माजी आप ही बतलाइये कि कौन से धर्म और किस सदाचार से जीव सुखी होता है ?
सूरिजी-विप्रो ! यदि आप अपने दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हो तो पवित्र जैनधर्म की शरण लो और उसके कथानुसार सदाचार की प्रवृत्ति रखो।
_ विप्र-महात्माजी ! हम तो जाति के ब्राह्मण हैं अपना धर्म छौड़ कर जैन धर्म का पालन कैसे कर सकते हैं ? हमारी न्याति जाति वाले हमको क्या कहेंगे ?
सूरिजी-विप्रो ! धर्म के लिये वर्ण-जाति की रुकावट हो नहीं सकती है केवल श्राप ही क्यों पर पूर्व जमाना में इद्रभति श्रादि ४४०० ब्राह्मणों ने भगवान महावीर के पास जैन श्रमण दीक्षा ली थी उनके पश्चात् भी अार्य, शय्यंभवभट्ट, यशोभद्र, भद्रबाहु, आर्य महागिरी, आर्यसुहस्ति, आर्य्यरक्षत, वृद्धवांदी, सिद्धसेनादि, चार वेद अठारहपुराणों के पारंगत धुरंधर ब्राह्मणों ने जैनधर्म को स्वीकार कर हजारों लाखों जीवों का उद्धार किया है । यह तो दूर की बात है पर आपही के नगर में ६२ कोटीधीश ब्राह्मणों ने जैनधर्म स्वीकार कर उसका ही अच्छी तरह पालन किया या करते हैं फिर श्राप केवल लोकोपवाद के कारण ही जैनधर्म से वंचित रह कर अज्ञान मरण क्यों मरते हो । मैं श्रापको ठीक विश्वास दिला कर कहता हूँ कि जैनधर्म कल्पवृक्ष सदृश मनोकामना पूरण करने वाला धर्म है । आप उसको स्वीकार कर सदैव के लिए सुखी बन जाइये ।
विप्रों-ठीक है महात्माजी ! आपका कहना सत्य ही होगा और हम जैनधर्म स्वीकार करने के लिए तय्यार भी हैं पर हमें एक बात की शंका है वह भी आप की आज्ञा हो तो पूछ लें ?
सूरिजी--विप्रों आप खुशी से पूछ सकते हो, विचारज्ञ पुरुषों का तो यह कर्त्तव्य ही है कि अपने दिल की शंका का समाधान करके ही काम करना चाहिये ताकि पीछे पछताना न पड़े कहिये आपकी क्या शंका है।
विप्र-आपके कहने के मुताबिक जेनधर्म स्वीकार करने पर हम सब तरह से सुखी बन जायेंगे। पर हम जैनधर्म पालन करने वालों में भी किसी-किसी को दुःखी देखते हैं फिर वे सुखी क्यों नहीं होते हैं ।
सूरिजी--विप्रो ! पहले तो आप उन जैनधर्म पालन करने वालों से पूछो कि आप सुखी हैं या दुःखी ? श्रापको जवाब मिलेगा कि हम परम सुखी हैं । शायद आपने धन पुत्रादि को ही सुख समझ रखा हो, पर ज्ञान दृष्टि से देखा जाय तो धन पुत्रादि जैसे सुख के कारण हैं वैसे दुःख के भी कारण है । अर्थात दुख का मूल कारण तृष्णा और सुख का मूल कारण संतोष है यदि कितने ही धन पुत्रादि मिलने पर भी उसके पीछे तृष्णा लगी हुई है तो वह दुःखी है और धन पुत्रादि के अभाव एवं कितने ही निर्धनी क्यों न हो पर काशी जाते हुए ब्राह्मणों को उपदेश
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