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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १२६२-१३५२ इधर राज्य द्वार से लौटे हुए निराश ब्राह्मणों ने जनता को बहकाने व भ्रम में डालने का प्रपञ्च प्रारम्भ किया। नगरी में सर्वत्र इस बात का शोर गुल मच गया। हर जगह ये ही चर्चाएं होने लगी। जब क्रमशः यह चर्चा राजा के कर्णगोचर हुई तब तो वह एक दम विचार मग्न हो गया । उद्विग्न मन हो वह पुनः चलकर सूरिजी के पास आया और बोला-प्रभो ! मेरी लज्जा रखना आपके हाथ है । दयानिधान ! सारे शहर में ब्राह्मणों ने मेरे विरुद्ध उग्र आन्दोलन मचा दिया है । सूरिजी-राजन् ! आप निश्चिन्त रहें । जो होने का है वह होकर ही रहेगा। आप तो जैन धर्म पर अचल श्रद्धा बनाये रक्खें । धर्म के प्रभाव से सदा आनन्द ही रहेगा। लोग अपनी स्वार्थ साधना के लिये मिथ्या अफवाहें फैला रहे हैं उन्हें उनका प्रयत्र करने दीजिये । हम लोग भी अभी तो यहीं पर ठहरेंगे। आप तो धर्माराधन में दृढ़ चित्त रहिये । सूरिजी के इस कथन से राजा के हृदय को कुछ शान्ति का अनुभव अवश्य हुआ पर ब्राह्मणों के उग्र प्रपञ्च ने राजा के संकल्प विकल्प की और भी वर्षित कर दिया । क्रमशः चिन्तानिमग्न राजा के विचारधारात्रों में सात दिन निकल गये । पर वर्षा के कुछ भी चिन्ह नभमण्डल में दृष्टिगोचर नहीं हुए अतः उसे और भी प्रपाश्चिक व्याकुलता सताने लगी। इधर आठवें दिन वर्षा के चिह्नों के थोड़े से चिन्ह होते ही मूसलधार जलवृष्टि हुई जिससे राजा ही क्या पर, ब्राह्मणों के सिवाय सब ही नगरी के लोग प्रसन्न हो गये । सब नगर निवासी सूरिजी व सूरिजी के धर्म और राजा की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। राजा और प्रजाने भी जैन धर्म व अहिसा धर्मः का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर बिना विलम्ब जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इस घटना का समय वंशावलियों में वि० सं० ६३३ ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी का बतलाया है। राजा सुहड का नाम कहीं कहीं सूर्यमल्ल भी लिखा है। सूर्यमल्ल का पुत्र सलखण था। एक बार सलखण घोड़े पर चढ़कर कहीं जा रहा था । मार्ग में सूर्यास्त होने का समय हो जाने के कारण वेणी नगर के पास पहुंच कर दरवाजे के बाहिर एक मकान में ठहर गया। एक अपरिचित व्यक्ति को वहां ठहरा हुआ देख किसी देणी ग्राम वासी ने कहा--महानुभाव ! यहां रात्रि में एक बाघ आता है और मनुष्यों को मार डालता है। अतः इस ग्राम के दरवाजे भी रात्रि में बन्द रहते हैं। कोई भी मनुष्य बाघ के भय से रात्रि में बाहर नहीं जाता है इसलिये आप भी नगर में ही पधार जाइये । सलखण ने अपनी शक्ति के अभिमान में उक्त व्यक्ति की बात को नहीं सुनी। लोगों ने राजकीय सत्ता के द्वारा सलखण को वहां से हटाने का प्रयत्न किया पर राजकीय सुभटो-अनुचरों के वचनों की भी परवाह नहीं की। वह युवावस्था के अभिमान में सावधान हो नगर के बाहिर ठहर गया। रात्रि के समय इधर से बाघ आया और उधर से अप्रमत्त सलखण ने शस्त्र चलाया जिससे बाघ वहीं ठार हो गया । प्रातःकाल कौतूहल देखने के लिये अनेकगण नगरी के बाहिर आये तो बाघ को मरा हुआ देख कर राजा के पास सब समाचार भिजवा दिये । राजा भी उक्त बहादुर व्यक्ति के पराक्रम को देखने के लिये स्वयं चलकर आया और परम हर्ष पूर्वक सलखण से मिला। प्रसन्नता प्रगट करते हुए व सलखण के शौर्य की प्रशंसा करते हुए सम्मानपूर्वक उसे अपनी नगरी में लेगया। उसके क्षत्रियोचित बल कौशल से प्रसन्न होकर लाख सरपाव और एक अच्छी जागीरी प्रदान कर उसे अपने यहां पर ही रख लिया। इस सलखन की सन्तान ही भविष्य में बाघमार के नाम से सम्बोधित हुई । किन्ही २ वंशावलियों में बाघमार गौत्र के 'मा' के स्थान पर भूल से 'चा' लिखा गया है । अतः बाघमार के बदले बाघचार भी पाया जाता है । वास्तव में मूल गौत्र तो बाघमार ही है। बाघचार तो अपभ्रंश के रूप में पीछे से रूढ़ हुआ है। इस जाति के उदार नर पुङ्गवों ने जैन जाति की अवर्णनीय सेवा की है। इनकी वंशावली निम्न प्रकारेण है राव सुइड के सफल मनोरथ और जैनधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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