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वि० सं० ८६२-६५२]
[ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास
दे दिया। वे बेचारे निरपराधी मूक जीव भी श्राचार्यश्री का उपकार मानते हुए व तुङ्गोपुर नरेश को सहृदयता पूर्वक आशीर्वाद देते हुए चले गये और अपने २ बाल बच्चों से उत्सुकता पूर्वक मिले ।
जब यह सम्वाद स्वार्थलोलुपी ब्राह्मणों को मिला तो घे एक दम निस्तेज हो गये। उनके होश हवास उड़ गये । उनकी लम्बी चौड़ी सम्पूर्ण आशाओं पर पानी फिर गया। वे सबके सब उद्विन्न चित्त हो राजा के पास आये और कहने लगे-नरेश ! आपने नास्तिकों के कहने में आकर यह क्या अनर्थ कर डाला? गत वर्ष तो दुष्काल पड़ा ही था किन्तु इस वर्ष जो दुष्काल पड़ गया तो सब दुनियाँ ही यम का कवल बन जायगी। देवी देवतात्रों को रुप होने पर तो न मालूम क्या २ दुःख सड़न करने पड़ेंगे। राजन् ! किसी क्षुधातुर व्यक्ति के सामने षट्स संयुक्त भोजन का थाल रखकर पुनः खेंच लेना कितना अयुक्त एवं भयङ्कर है ? आपने भी तो यही कार्य यज्ञ को प्रारम्भ कर देवी देवताओं के लिये किया है। प्रभो ! अभी तक तो कुछ भी नहीं बिगडा है। अभी भी आप पशओं को मंगवा कर देवतायों को यज्ञ विहित बली देकर जन समाज को सुखी बना सकते हैं। यह नपोचित परमपरागत धर्म भी है। राजन! आपके पर्वजों ने भी ऐसा ही किया व आपको भी ऐसा ही करना चाहिये ।
ब्राह्मणों ने हर एक प्रकार से राजा को समझाने में कमी नहीं रक्ली। भावी भय व यज्ञ से होने वाले सुख रूप प्रलोभन पाश में बद्धकर स्वस्वार्थ साधना का उन्होंने सफल प्रयोग किया पर अहिंसा के रङ्ग में रंगे हुए राजा पर उनके वचनों का किञ्चित भी असर नहीं हुआ। राजा के हृदय में तो अहिंसा भगवती ने अपना अडिग आसन जमा लिया था अतः उसने साफ शब्दों में कह दिया-पशुवध रूप यज्ञ करवा कर भयङ्कर पाप राशि का उपार्जन करना मुझे इष्ट नहीं है। कुछ भी हो ऐसा हेय-निन्दनीय कार्य अब मेरे से नहीं किया जा सकेगा। राजा का इस प्रकार एक दम निराशाजनक प्रत्युत्तर सुनकर उद्विग्न मन हो ब्राह्मण खस्थान चले गये। ____ इधर राजा ने सूरिजी को बुलाकर कहा-पूज्य महात्मन् ! ब्राह्मण अप्रसन्न हो चले गये-इसकी तो मुझे किञ्चित् भी चिन्ता नहीं पर वर्षा जल्दी होनी चाहिये अन्यथा ब्राह्मण लोग मेरे विरुद्ध बहका कर कहीं नया उपद्रव राज्य में नहीं खड़ा करदें ? भगवन ! दया धर्म के प्रताप से राज्य भर में वर्षा वगैरह के कारण प्रजा को हर तरह से सुख चैन रहा तो मैं आपका शिष्य बनकर तन, मन, धन से पवित्र जैन धर्म की आराधना करूंगा । इस पर सूरिजी ने कहा-राजन ! धर्म एक तरह का कल्पवृक्ष या चिन्तामणि रत्न है। विशुद्ध श्रद्धा पूर्वक धर्म की आराधना करने से वह हर एक अभिप्सित अभिलाषा को पूर्ण करने वाला व जन्म, मरण के भयंकर चक्र को मिटाकर मोक्ष के शाश्वत् सुख को देने वाला है। इस प्रकार धर्म के महत्व को बहुत ही गम्भीरता पूर्वक राजा को समझाते रहे। राजां भी आचार्यश्री के वचनों पर विश्वास कर वंदन कर स्वस्थान चला आया।
रात्रि में जब संस्तारा पौरसी भणाकर प्राचार्यश्री ने शयन किया तो विविध प्रकार के तर्क वितको की उलझन में उलझे हुए सूरिजी को निद्रा नहीं आई। आप सोते सोते ही विचार करने लगे-राजा कर्म सिद्धान्त से सर्वथा अनभिज्ञ है । अतः इसका निर्णय स्वयं देवी के द्वारा ही करना चाहिये । बस सूरिजी एकाग्र चित्त से देवी का ध्यान करने लगे। देवी सच्चायिका ने भी अवधिज्ञान से आचार्यश्री के मनचिन्तित भावों को देखा तो तत्काल परोक्ष रूप में या वार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो वंदन किया। आचार्यश्री ने भी धर्मलाभ देते हुए अपने मनोगत भाव पूछे तो देवी ने कहा-पूज्य गुरुदेव! आप बड़े ही भाग्यशाली हैं। आपकी यशः रेखा बड़ी जबर्दस्त है । वर्षा तो आज से आठवें दिन होने वाली है और इसका यशः श्रेय भी आपको ही मिलने वाला है। देवी के उक्त वचनों से आचार्यश्री को पूर्ण सन्तोष होगया। देवी भी आचार्यश्री को चंदन कर यथा स्थान चली गई। १३५६
राव सुहड़ यज्ञ और सूरिजी का उपदेश
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