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________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ marwanamurarimmanna इनके वैवाहिक सम्बन्ध के लिये वंशावलीकार कहते हैं कि राजपूतों और उपकेशवंशियों दोनों के ही साथ इनका विवाह सम्बन्ध था। मेरे पास जो वंशावलियें वर्तमान हैं उनसे पाया जाता है कि सालेचा जाति के लोग व्यापारादि के कारण बहुत से ग्रामों में फैल गये थे। बोहरगतें करने से इनको सालेचा बोहरा भी कहते हैं। इस जाति के उदार नररत्नों ने अनेक ग्रामों में मन्दिर बनवाये। कई बार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाले । स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी में पुष्कल द्रव्य देकर वात्सल्य भाव प्रकट किया। याचकों को तो इतना दान दिया कि उन लोगों ने आपके यशोगान के कई कवित्त एवं गीत बनाकर आपकी धवल कीर्ति को अमर बना दिया। तुण्ड गौत्र-बाघमार-बाघचार जाति-तुंगी नगरी में सुहड़ राजा राज्य करता था। वह ब्राह्मण धर्म का कट्टर उपासक था। उसने ब्राह्मणों के उपदेश से एक यज्ञ करने का निश्चय किया था, और शुभ मुहूर्त में यज्ञ का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। उस यज्ञ के निमित्त हजारों मूक पशु एकत्रित किये गये थे। पुण्यानुयोग से उसी समय आचार्यश्री सिद्धसूरिजी भू-भ्रमण करते हुए तुंगी नगरी में पधार गये। जब आपको मालूम हुआ कि यहाँ यज्ञ में हजारों जीवों की बलि दी जायगी तब तो आपका हृदय पशुओं की करुणाजनक स्थिति से भर गया। आप बिना किसी संकोच के राजा को अहिंसा धर्म का प्रतिबोध देने के लिये राज सभा में पधार गये । राज सिंहासन से उठ कर वन्दन किया सूरिजी ने धर्मलाभ आशीर्वाद देकर फरमाने लगे कि-राजन् ! महान पवित्र दया के सागर स्वरूप अनेक महापुरुषों की खान-इक्ष्वाकु (सूर्य) वंश में उत्पन्न होकर भी अनर्थ परिपूर्ण यह क्या जघन्य कार्य कर रहे हैं ? राजा-महात्मन् ! वर्षा के अभाव से गत वर्ष यहाँ दुष्काल था व इस वर्ष भी वर्षा के चिन्ह नहीं दिखलाई पड़ रहे हैं अतः ब्राह्मणों के कहने से देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये ही यह सब यज्ञ--प्रपश्च किया जा रहा है। देवी देवताओं के सन्तुष्ट होने पर वर्षा निर्विन हो जायगी अतः सकल जन समुदाय में शान्ति एवं प्रानन्द का नवीन सौख्य लहराने लगेगा। सूरिजी-राजन् ! यह शान्ति का उपाय नहीं पर इस भव और पर भव में अशान्ति का ही कारण है । दुनियाँ को तो पुन्य पाप आदि जैसे शुभाशुभ कर्मों का उदय होगा-भोगना पड़ेगा पर इस जघन्य कार्य से आपको तो इन जीवों का यदला अवश्य देना पड़ेगा। भला-ये तृण भक्षण कर अपने प्यारे प्राणों की रक्षा करने वाले निरपराधी मूक प्राणी यज्ञ में तड़फ २ कर मरते हुए आपको कैसा आशीर्वाद देवेंगे? इनकी दुराशीश से श्रापका इस भव परभव में क्या परिणाम होगा? आपको जीव हिंसा रूप कटुफल का अनुभव नारकीय असह्य यातनायों द्वारा करना पड़ेगा इसका भी आप जरा विचार कीजिये । इस प्रकार सूरिजी ने हिंसा की भीषणता का व नारकीय जीवन की करालता का साक्षात् चित्र राजा के हृदय पटल पर अङ्कित कर दिया। आचार्यश्री के द्वारा कहे गये इन मार्मिक शब्दों ने राजा के हृदय में दया के अङ्कर अंकुरित कर दिये । अतः राजा ने प्राचार्यश्री के वचनों को हृदयङ्गम करते हुए कहा-महात्मन् ! यह यज्ञ तो मेरे द्वारा प्रारम्भ कराया जा चुका है अतः पूरा भी करवाना पड़ेगा पर भविष्य में अबसे जीव हिंसा रूप यज्ञ कभी नहीं करूंगा। मैं आपके सामने ईश्वर की साक्षी पूर्वक उक्त प्रतिज्ञा करता हूँ। सूरिजी-राजन ! हमें तो इसमें किञ्चित् भी स्वार्थ नहीं है हम तो एक मात्र आपके हित के लिए कहते हैं कि परभव में भी आपको किसी प्रकार की यातना का अनुभव नहीं करना पड़े। आप स्वयं अपनी बुद्धि से विचार सकते हैं कि जितने जीवों को इस समय आप यज्ञ के लिये मरवा रहे हैं वे ही जीव भवान्तर में अापके शत्रु हो आपके प्राणों के हर्ता बनेंगे। आपको भी इसी तरह की बुरी मौत से मरना पड़ेगा। इस प्रकार आचार्यश्री ने परभवों के दुःखों का साक्षात् चित्र राजा के नयनों के समक्ष चित्रित कर दिया। सूरीश्वरजी के उपदेश से प्रभावित राजा ने किसी की सलाइ लिये बिना ही सब पशुओं को छोड़कर अभयदान तुंग गौत्र घाघमार जाति की उत्पत्ति १३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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