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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७५७–७७०
१३--संज्वल का क्रोध-जैसे पानी की लकीर । १४-संज्वल का मान-जैसे तृण का स्तंभा । १५-संज्वल का माया-जैसे चलता बलद का पैशाव १६ --- संज्वल का लोभ-जैसे हल्दी का रंग !
इनमें क्रोध की दो मास, मान की एकमास, माया की पन्द्रह दिन, और लोभ की अन्त मुहूत की स्थिति है गति देवतों की ? हानि वीतरागता नहीं आना देती है।
___ इस प्रकार क्रोधादि सोलह कषाय हैं इसमें भी एक एक के चार चार भेद होते हैं जैसे १-अन्तानुबन्धी क्रोध अन्तानु बन्धी क्रोध जैसा २-अन्तानु बन्धी क्रोध अप्रत्याख्यानी क्रोध जैसे ३-अन्तानुबन्धी क्रोध प्रत्याख्यानी क्रोध जैसे और ४-अन्तानुबन्धी,क्रोध संज्वल जैसा उदाहरण जैसे एक मिथ्यातवी प्रथम गुणस्थान वाला जीव है ! और वह इतनी क्षमा करता है कि उसको लोग मारे पिटे कटू शब्द कहें तो भी क्रोध नहीं करता है ! पर उसका मिथ्यत्वमय पहिला गुनस्थान नहीं छुटा है अतः अन्तानुबन्धी कषाय मौजुद है हाँ यह अन्तानुबन्धी क्रोध संज्वल सदृश है ! तथा एक मुनि छठे गुणस्थान वाला है ! परन्तु उसका क्रोध इतना जोर दार है कि जिसको अन्तानुबन्धी क्रोध कहा जाता है ! परन्तु तीन चौकड़ीयों का क्षय होने से उस क्रोध को संज्वल का क्रोध अन्तानुबन्धी जैसा ही कहा जा सकता है ! इसी प्रकार शेष कषायोंको भी समझ लेना !
महानुभावों! संसार में परि भ्रमन कराने वाला मुख्य कषाय ही है श्री भगवतीजी सुत्र के बारहवें शतक के
उइंश म शक्ख श्रावक ने भगवान महावीर को पुच्छा था कि जीव क्रोध करे तो क्या फल होता है ? उत्तर में भगवान महावीर ने फरमाया कि शंक्ख क्रोध करने से जीव आयुष्य कर्म साथ में बन्धे तो आठों कों का बन्धकरे शायद आयुष्य कर्म न बन्धे तो सात कर्म निरन्तर बन्धता है जिसमें भी क्रोध करने वाला शिथल कर्मों को मजबूत करे, मन्द रस को तीब्र रस वाला करे अल्मस्थिति वाला कर्मों को दीर्घ स्थिति करे । अल्पप्रदेशों को बहु प्रदेशों वाला बनावे असाता वेदनी बार बार बन्धे और जिस संसार की आदि नहीं और अन्त नहीं उन संसार में दीर्घ काल तक परि-भ्रमन करे इसी प्रकार मान माया और लोभ के फल बतलाय हैं । इससे आप अच्छी तरह समझ सकते हैं ? कि क्रोध मान माया और लोभ करना कितना बुरा है और भवान्तर में इसके कैसे कटु फल मिलते हैं। उदाहरण लीजिये--
टेली ग्राम में चंड़ा नाम की बुढ़िया रहती थी उसके आरुण नाम का पुत्र था वे निर्धन होने पर भी बड़े ही क्रोधी थे बुढ़िया सेठ साहुकारों के यहां पानी पीसनादि मजूरी कर दुखः पुर्ण अपना गुजारा करती थी आरुण भी बाजार में मजूरी करता था पर क्रोधी होने से उसे कोई अपने पास आने नहीं देता था ! एक समय चंडा रसोई बना कर अपने बेटे की राह देख रही थी कि वह भोजन करले तो मैं किसी र जुरी पर जाऊं पर श्रारुण घर पर नहीं आया ! इतने ही मैं किसी सेठ के यहाँ से बुलावा आया कि हमारे यहाँ पर महमान आये हैं पानी ला दो ! बुढ़िया ने सोचा कि बेटे का स्वभाव क्रोधी है वह भोजन कर जावे तो में जाऊ पर साथ में यह भी सोचा की संठजी का घर मातम्बर है मेरा गुजारा चलता है इस वक्त इन्कार करना भी अच्छा नहीं है चंडाने बनाई हुई रसोई एक छींके पर रख पानी भरने को चली गई पिछे श्रामण आया माता को न देख लाल बंबुल बन गया जब माता आई तो बेटाने कहा रे पापनी तुझे शुली चढ़ादूं कि तु कहाँ चली गई थी मैं तो भूखों मर रहा हूँ इत्यादि बेटे के कठोर बचन सुन कर माता को भी क्रोध श्रागया कषाय की कटुता विषय द्रष्टान्त ]
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