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________________ वि० सं० ३५७-७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और उसने कहा रे दुष्ट ! क्या तेरा हाथ कट गया था कि छींके में पड़ी रोटी लेकर तु नहीं खा सका बस ! दोनों के निकाचित कर्म बन्ध गये ! बाद कई वर्षों के वे दोनों मर कर संसार में भ्रमन करते हुए बहुत काल व्यतित कर दिया और क्रमशः बुढ़िया का जीव एक धना सेठ के यहाँ कन्या हुई जिसका नाम लीलू रखा और आरुण का जीव एक दत्त सेठ के यहाँ पर पुत्र हुआ जिसका नाम सरजा दिया भाग्य बसात् इन दोनों की आपस में सगाई हो गई सरजा ने दिशावर जाकर पुष्कल द्रव्योपार्जन किया उसने माता पिता के छाने एक काकरण की जोड़ी आपनी औरत के लिये भेज दी बाद आरुण देश को आने के लिये एक मित्र के साथ रवाना हो गया। इधर लीलू मेला में गई थी वापिस आते वक्त किसी बदमास ने उसके हाथ काट कर कार्कण निकाल लिया जब पुलिस आई तो वो बदमास भाग कर एक बगीचा में आया वहाँ मुसाफिरी करता सरजा भी आकर एक मकान में सो रहा था बदमास ने छुरा और कार्कण सरजा के पास रख दिया गरज कि पुलिस आवेगी तो सरजा को पकड़ेगी और नहीं तो मैं काकण लेकर भाग जाऊंगा। पुलिस आई और कोकण देख सरजा को पकड़ कर ले गई और राजा के हुक्म से उसे शूली चढ़ा दिया। सरजा के मित्र द्वारा यह खबर धना सेठ को हुई तो उसे अपार दुख हुआ कारण एक ओर तो पुत्री के हाथ कटे दूसरी ओर जमाई को शूली दे दी गई। उस समय शानके समुद्र गुणसागर नामक आचार्य बगीचे में पधारे कि उनके पास ही सरजा को शूली दी गई थी । सेठ धना अपनी पुत्री को लेकर सूरिजी की सेवा में पहुँचा और व्याख्यान सुन कर प्रश्न किया कि पूज्यवर ! मेरी पुत्री और जमाई ने पूर्व भव्य में क्या कार्य किया था कि पुत्री के हाथ कटे और जमाई को शूली चढ़ाया गया । इस पर सूरिजी ने कहा क्रोध के कटू फल हैं पूर्व जन्म में तुम्हारी लड़की चंडा नाम की सेठानी थी और जमाई आरुण नाम का पुत्र था पुत्र ने कहा कि तुझे शूली चढ़ा दूँ तब माता ने कहा था कि तेरे क्या हाथ कट गया है कि छींके पर से रोटी लेकर खा नहीं सके । इस प्रकार क्रोध के वश शब्द निकालने से दोनों के कर्म बन्ध गये वे ही कर्म आज दोनों के उदय आये हैं और इन कर्मों की अवधि भी पूरी हो गई है इस कथन को सुन कर परिषदा भय भ्रान्त हो गई और क्रोध को त्याग-क्षमा करना अच्छा समझा । राजा के मन्त्री ने निर्णय किया तो बदमास दूसरा ही निकला तब जाकर सरजा को शुली से उतार दिया। इधर लील्लू के हाथ भी अच्छे हो गये। सारांश यह है कि क्रोध महा चाण्डाल होता है क्रोध व्याप्त मनुष्य अपना ज्ञान भूल जाता है और क्रोध में अनर्थ कर नरक जाने के कर्मोपार्जन कर लेता है अतः समझदारों को क्रोध के समय क्षमा धारण करनी चाहिये । इत्यादि सूरिजी ने इस कदर से विवेचन किया कि उपस्थित लोग थर थर कॉपने लग गये । कारण, संसार वृद्धि का मुख्य कारण कषाय ही है । अत: सब, लोग सूरिजी के व्याख्यान में ही अन्तः करण से क्षमापना करके निशल्य हो गये । तत्पश्चात महावीर की जयध्वनि से व्याख्यान समाप्त हुश्रा । वरदत्त ने अपने मकान पर जाकर नौ उपवास का पारण किया पर उसका दिल संसार से विरक्त है गया कि मेरे ही निमित इतने लोगों के कर्म बन्ध का कारण हुआ। यदि मैं पहले ही दीक्षा ले लेता तो इस कार्य का मैं कारण क्यों बनता इत्यादि विचार करता हुआ वरदत्त समय पाकर सूरिजी के पास आया और बन्दन कर कहा पूज्यवर ! मेरी इच्छा संसार छोड़ कर आपके चरणों में दीक्षा लेने की है पर मेरे स्नान क अटल नियम है । इसके लिये क्या करना चाहिये ? श्राप ऐसा रास्ता बतलावें कि मेरा नियम खण्डित न है और मैं दीक्षा भी ले सकू । अहा-हा उस जमाने के लोग अपने नियम पर कैसे पाबंद थे । [वरदत्त के विचारों का पलट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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