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________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० सूरिजी ने कहा वरदत्त ! पूजा दो प्रकार की होती है १-द्रव्य पूजा, २-भाव पूजा जिसमें भावपूजा कार्य है और द्रव्यपूजा कारण है । सारंभी सपरिगृही गृहस्थों के द्रव्य पूजा से ही भावपूजा हो सकती है कारण गृहस्थों के मनोगत भाव कई स्थानों पर बिखरे हुये रहते हैं । उन सबको एकत्र करने के लिये द्रव्य पूजा है । जब द्रव्य पूजा करली है तो भी भावपूजा अवश्य की जाती है। अकेली द्रव्य पजा इतने फल की दातार नहीं है कि जितनी भाव पूजा के साथ होती है गृहस्थ द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा के अधिकारी हैं । तब साधु एक भाव पूजा के अधिकारी हैं । तुमने आचार्य रत्नप्रभसूरि का चरित्र सुना है । गृहस्थपने में उनको भी द्रव्य पूजा का अटल नियम था पर दीक्षा लेते समय गुरु श्राज्ञा से मूर्ति अपने साथ में ले ली और वे हमेशा भाव पूजा करते थे। इतना ही क्यों पर वह मूर्ति आपके पट्टपरम्परा के आचार्य के पास उपासना के लिये चली आ रही है एवं आज मेरे पास है और मैं सदैव भाव पूजा करता हूँ। वरदत्त यदि तुझे दीक्षा लेनी है तो खुशी के साथ ले इससे तेरे नियम खण्डित न होगा पर नियम में वृद्धि होगी शास्त्रों में कहा है कि: संति एगेहि भिक्खूहि, गारस्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सव्वेहि, सांहवो संजमुत्तरा ।। सब जगत के असंयति एक तरफ और एक नवकारसी ब्रत करने वाला श्रावक एक तरफ तो वे मास मास खामण के पारणे करने वाले असंयति एक श्रावक की बराबरी नहीं कर सकते हैं । तब सब जगत के देशव्रती श्रावक एक तरफ और एक संयति साधु एक तरफ तो वे सब श्रावक एक साधु की बराबरी नहीं कर सकते हैं और संयति की बराबरी तो क्या परन्तु शास्त्रकार तो यहाँ तक फरमाते हैं कि:मासे सासे उजोबालो, कुसंगणं तु भंजएँ । ण सो सुक्खातधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं । ___ मास मास की तपस्या और पारणा के दिन द्राभ के अग्र भाग पर आवे उतना पदार्थ का ही पारणा करे तो भी वे व्रतधारी के सोलहवें भाग में भी नहीं आ सकते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा असंयति-मिथ्यादृष्टि पहिले गुणस्थान है देशव्रती श्रावक पाँचवें गुणस्थान है और साधु छट्ठा या इनसे ऊपर के गुस्थान का अधिकारी होता है । पहिले गुणस्थान में अन्तानुबन्दी चौक का उदय होता है तब देशवती गुणस्थान में अन्तानुबन्दी अप्रत्याख्यानी एवं दो और सर्वव्रती के तीन चौकड़ी निकल जाती हैं । केवल एक संज्वलन की चौकड़ी रहती है अतः संयति की बराबरी कोई नहीं कर सकते हैं । वरदत्त ! ज्यों २ कषाय की चौकड़ियों का क्षय व क्षयोपशम होता जाता है त्यों २ मोक्ष नजदीक आता है। अतः दीक्षा के लिये द्रव्य पूजा का विचार करने की आवश्यकता नहीं है। कारण इसमें द्रव्य पूजा की बजाय भाव पजा अधिक गुणवाली है । इतना ही क्यों पर सोने के मंदिरों से मेदिनी मंडित कर दें तो भी एक मुहूर्त के संयम के तुल्य नहीं हो सकती है : हाँ, संसार में सारंभी सपरिगृही जीवों के लिये द्रव्य पूजा भी लाभकारी है कारण, भाव आता है वह द्रव्य से ही आता है । जब भाव पजा का अधिकारी बनता है तो उसके सामने द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं है इत्यादि सूरिजी ने खूब विस्तार से समझाया । वरदत्त ने कहा पूज्यवर ! आपका कहना मेरे समझ में आ गया है और मैंने दीक्षा लेने का विचार निश्चय कर लिया है । सूरिजी ने कहा 'जहां सुखम्' देवानुप्रिय । पर यदि निश्चय कर लिया है तो बिलम्ब न करना जिसको वरदत्त ने 'तथाऽस्तु' कर सूरिजी का वचन शिरोधार्य कर लिया और सूरिजी को बन्दन परमेश्वर की द्रव्य एवं भावपूजा के भेद ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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