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________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २६-- श्राचार्य देवगुप्तसूरि ( पांचवा ) आचार्यस्तु स देवगुप्त पदयुक् श्रीमाल वंशे बुधः । रोगग्रस्त तयाsपि यो न विजहौ धर्मे प्रतिज्ञां च स्वाम् ॥ दीक्षानन्तरमेव येन रविणा तेजस्तथा दीपितम् । वादि ध्वान्त विनाशनं च विहितं तस्मै नमः शास्वतम् ॥ + Co या चार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज जैसे जैनागमों के पारगामी थे वैसे ही तपस्या करने में बड़े ही शूरवीर थे । आपकी तपस्या के कारण कई देवी देवता आपके चरण कमलों की सेवा में रहना अपना अहोभाग्य समझते थे । आपको कई लब्धियें एवं विद्यायें तो स्वयं वरदाई थी। जैनधर्म का उत्कर्ष बढ़ाने के लिये आप खूब देशाटन करते थे । आपके आज्ञावृति हजारों साधु साध्वियां प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया करते थे । आपका प्रभावोत्पादक जीवन बड़ा ही अनुकरणीय था । श्राप श्रीमान् कोरंटपुर नगर के श्रीमालवंशी शाह लुम्बा की पुन्य पावना भार्या फूलों के लाड़ले पुत्र थे श्रापका नाम वरदत्त था। शाह लुम्बा अपार सम्पत्ति का मालिक था। आपका व्यापार क्षेत्र इतना विशाल था कि भारत के अलावा भारत के बाहर पाश्चात्य प्रदेशों में जल एवं थल दोनों रास्तों से पुष्कल व्यापार था । साधर्मी भाइयों की ओर आपका अच्छा लक्ष था । शाह लुम्बा ने पांचवार तीर्थ यात्रा संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिका की पहरामणी दी थी। उस जमाने में तीर्थों के संघ का खूब ही प्रचार था। श्रीसंघ को अपने यहां बुला कर उनको अधिक से अधिक पहरामणी में द्रव्य देना बड़ा ही गौरव का कार्य समझा जाता था, मनुष्य अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मी इस प्रकार शुभ कार्य एवं विशेष साधर्मी भाइयों को अर्पण करने में अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझते थे। यों तो शाह लुम्बा के बहुत कुटुम्ब था पर वरदत्त पर उसका पूर्ण प्रम एवं विश्वास था कि मेरे पीछे वरदत्त ही ऐसा होगा कि धर्म कर्म करने में जैसे मैंने अपने पिता के स्थान, मान, एवं गौरव की रक्षा की है वैसे ही मेरे पीछे वरदत करेगा, यों भी वरदत्त सर्व प्रकार से योग्य भी था ! ७७६ Jain Education International रक्त चिकने लग गया । वरदत्त के भगवान् महावीर के एक समय अशुभ कर्मोदय वरदत्त के शरीर में ऐसा रोग उत्पन्न होगया कि उसके शरीर में जगह २ स्नान करने का अटल नियम था जिस दिन से दत ने यह नियम लिया था उस दिन से अखण्डपने से पाला था पर न जाने किस भव के कर्मोदय हुआ होगा। जहां तक शरीर में धोड़ा रक्त चीकता था वहां तक तो वरदत्त अपने नियमानुसार भगवान् महावीर का स्नान करता रहा पर जब कुछ अधिक विकार हुआ तो लोगों में चर्चा होने लगी कि वरदत्त के शरीर में रक्त चीक रहा है। इससे स्नान करने से भगवान की आशातना होती है। अतः वरदत्त को पूजा नहीं करनी चाहिये । तब कई एकों ने कहा कि वरदत्त के अखण्ड नियम है वह पूजा किये बिना मुँह में अन्नजल तक भी नहीं लेता है । श्रीपालजी को कुष्ठरोग होने पर भी पूजा की है मुख्य तो भावों की शुद्धि होनी For Private & Personal Use Only [ कोर टपुर का श्रीमाल लुम्बा www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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