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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० चाहिये । इस प्रकार की चर्चा हो रही थी परन्तु कलिकाल के प्रभाव से चर्चा ने उग्र रूप धारण कर लिया कि दो पार्टियां बनगई। इस हालत में वरदत्त ने सोचा कि केवल मेरे ही कारण से संघ में फूट कुसम्प पैदा होना अच्छा नहीं है। दूसरे प्राण चले जाने पर भी मैं अपने नियम को खण्डित करना नहीं चाहता हूँ। इससे तो यही उचित है कि जहां तक मैं स्नात्र नहीं करलं वहां तक मुंह में अन्न जल नहीं लू वरदत्त का यह विचार विचार ही नहीं था परन्तु उसने तो कार्य के रूप में परिणित कर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया जिसको करीब नौ दिन व्यतीत होगये न वरदत्त का रोग गया न उसने पूजा की और न उसने नौ दिनों में मुह में अन्नजल ही लिया। इस बात की नगर में खूब गरमा गरम चर्चा भी चल रही थी। ठीक उसी समय धर्मप्राण आचार्य कक्कसूरि का शुभागमन कोरंटपुर में हुआ । श्री संघ में जैसे वरदत्तकी चर्चा चल रही थी वैसे एक उपकेशवंशी ने राजपूत की कन्या के साथ शादी करली थी इसका भी विग्रह चल रहा था परन्तु सूरिजी के पधारने से एवं उपदेश से राजपूत की कन्या को जैनधर्म की दीक्षाशिक्षा देकर उस झगड़े को शान्त कर दिया पर वरदत्त का एक जटिल प्रश्न था । इसके लिये सूरिजी ने सोचा कि इसमें निश्चय तो स्नान करने में कोई हर्ज है नहीं पर व्यवहार से ठीक भी नहीं है। अतः इस प्रश्न का निपटारा कैसे किया जाय । दूसरे संघ की दोनों पार्टी अपनी २ बात पर तुली हुई हैं अतः आपने देवी सच्चा यिका का स्मरण किया । बस, फिर तो क्या देरी थी । सूरिजी के स्मरण करते ही देवी ने आकर बन्दन किया और अर्ज की प्रभो ! फरमाइये क्या काम है ? सूरिजी ने कहा देवीजी ! वरदत्त का यहां बड़ा भारी बखेड़ा है इसको किस प्रकार निपटाया जाय ? देवी ने अपने ज्ञान से उपयोग लगा के देखा तो वरदत्त के वेदनीय कर्म का अन्त हो चुका था। अतः देवी ने सूरिजी से कहा प्रभो! आप बड़े ही भाग्यशाली हैं आपके यश रेखा जबरदस्त हैं और यह पूर्ण यश आपको ही आने वाला है । वरदत्त की वेदना खत्म हो चुकी है । सुबह आप वरदत्त को वासक्षेप देंगे तो इसका शरीर कंचन जैसा हो जायगा और वह महावीर स्नान करवाकर पारणा भी कर लेगा और भी कुछ सेवा हो तो फरमाइये ? सूरिजी ने कहा देवीजी आप समय २ पर इस गच्छ की सार सँभाल करती हो अतः यह कोई कम सेवा नहीं है । देवी ने कहा पूज्यवर ! इसमें मेरी क्या अधिकता है । यह तो मेरा कर्तव्य ही है । पर इस गच्छ का मेरे पर कितना उपकार है कि जिसको मैं वर्णन ही नहीं कर सकती हूँ इत्यादि । सूरिजी को वंदन कर देवी वरदत्त के पास आई और कहा कि वर. दत्त ! तू सुबह जल्दी उठकर सूरिजी का वासक्षेप लेना कि तेरी वेदना चली जायगी । वरदत्त ने कहा तथाऽस्तु । बस, देवी तो अदृश्य हो गई । वरदत्त ने सोचा कि यह अदृश्य शक्ति कौन होगी कि मुझे प्रेरणा की है ? खैर उसके दिलों में तो परमात्मा के स्नात्र की लगन लगही रही थी उसने रात्रि में निद्रा ही नहीं ली । सुवह उठ कर सीधा ही सूरिजी के पास गया और प्रार्थना की कि प्रभो ! कृपा कर वासक्षेप दिरावं । ज्योंही सूरिजी ने वरदत्त पर वासक्षेप बाला त्यों ही वेदना चोरों की भाँति भाग छूटी और वरदत्त का शरीर कंचन सा हो गया। वह सूरिजी को बन्दन कर सीधा ही महावीर के मन्दिर गया और स्नान कर स्नान कराने लग गया। इस बात की जब लोगों को खबर हुई तो आपस में चर्चा करते हुये सब लोग चल कर सूरिजी के पास आये और अपना २ हाल कहा । सूरिजी ने कहा महानुभावो! आपने विना हि कारण संघ में अशांति फैला रखी है ? तीर्थङ्करों का धर्म स्याद्वाद है । जैनधर्म कषाय जीतने में धर्म बतलाता है न कि कषाय बढ़ाने में । धन्य तो है वरदत्त को कि कषाय बढ़ने के भय से उसने तपस्या करना शुरू कर दिया कि जिससे आचार्य ककसरि कोरंटपुर में] ७७७ Jain Education Sci For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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