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________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ... आर्य कालकः-कालकाचार्य नाम के पांच आचार्य हुए हैं जिनमें - १-राजा दत्त को यज्ञ फल कहने वाले कालकाचार्य का समय वी० नि. ३००-३३५ । २-निगोद की व्याख्या करने वाले कालकाचार्य का समय वी०नि० ३३५.३७६ । ३-गर्दभल्लिविच्छेदक कालकाचार्य का समय वी० नि० ४५३-४६५ । ४-रत्न संचय की गाथानुसार कालका वार्य का समय वी०नि० ७२० । ५--वल्लभी में आगमवाचना में सम्मिलित होने वाले कालकाचार्य का समय वी० ९९३ । श्री खपटाचार्यः-श्रापका समय वी० नि० ४८४ का बतलाया जाता है। श्री महेन्द्रोपाध्याय-श्राप खपटाचार्य के शिष्य थे और खपटाचार्य की विद्यमानता में ही आपने कई चमत्कार बतला कर बहुतसी जनता को ( राजा प्रजा को ) जैन बनाये थे। प्राचार्य खपट के स्वर्ग वास के पश्चात् आप उनके पट्टधर हुए अतः आपके सूरि पद का समय वीर नि० ४८४ से प्रारम्भ होता है। आचार्य रुद्रदेव और श्रमणसिंह कब हुए इसका पता नहीं पर प्राचार्य पादलिप्त सूरि के जीवन में इनका उल्लेख होने से अनुमान किया जा सकता है कि खपटाचार्य और पादलिप्त के बीच में ये दोनों आचार्य हुए होंगे। __ आचार्यपादलिप्तमरि-आप आर्य नागहस्ति के शिष्य थे और आर्य नागहस्ति थे कालकाचार्य की संतान परम्परा के आचार्य । फिर भी पट्टावलियों में आपके लिये पृथक् २ उल्लेख मिलते हैं-- (१) माथुरी पट्टावलीमें आर्यानंदिलकेबादऔर रेवतिमित्रके पूर्व आपको २२ वें पट्टधर लिखा है। (२) नंदीसूत्रकी स्थविररावलीमें श्रानंदिल के बाद और रेवतिमित्र के पूर्व १७ वा स्थविरमाना है । (३) आर्य महागिरि की स्थविरावली में १७ वां पट्टधर माना है।। (४) वल्लभीस्थविरावलीमें आपकोवज्रसेनकेबाद औररेवतिमित्र के पूर्व २२सवें स्थविर माना है। (५) युगप्रधान पट्टावली में आपको आर्य वज्रसेनकेबादऔर रेवतिमित्र के पूर्व २२ ३०।। उक्त पट्रकम में २२-१८-१७ जो फरक है इसका कारण केवल पृथक २ पदावलियों का लिखना ही है । जैसे कई पट्टावलियों में आर्य यशोभद्र के पट्टपर संभूतिविजय ओर भद्रबाहु का एक नम्बर ही लिखा है, तब कई पट्टावलियों में (यु० प्र०) संभूतिविजय के पट्ट पर भद्रबाहु को लिख दिया । इसी प्रकार भार्य स्थूलभद्र के पट्टपर आर्य महागिरि और आय सहस्ती के लिये लिखा है तब अन्य पट्टावलियों में इन दोनों को अलग २ पट्टधर लिखा है । अस्तु उक्त कारण को लेकर पट्टक्रम नम्बर में फरक पाता है पर वास्तव में वह फरक नहीं है । दूसरी कई प टावलियों आय आनंदिल के बाद तो कई में आर्य वनसेन के बाद नाग हस्ति का नम्बर आया है पर, इन दोनों श्राचार्यों का समकालीन होना ही पाया जाता है । कारण, आर्य आनंदिलो को ॥ पूर्वधर कहा तब आर्य वज्रसेन के गुरु आर्य वज्रसूरि को दश पूर्वधर । अतः वनसेन के समय दश पूर्व या नव पूर्व का ज्ञान अवश्य था ही । अस्तु, उक्त भाधार से आर्य नागहस्ति का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी माना जा सकता है पादलिप्त सूरि का समय नागहस्ति के बाद का है पर, कई चूर्णियों एवं भाष्यों में पादलिप्तसूरि को आर्य खपट के समकालीन होना लिया है । यही नहीं, खपटाचार्य की सेवा में रह पादलिप्त को अनेक चमत्कारी विद्यार्थ ६४० [ भ० महावीर की परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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