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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ७-सिन्धु सौवीर देश-इस देश की राजधानी वीतमय पाटण में थी और राजा उदाई वहाँ पर राज करता था राजा उदाई का विवाह भी विशाला नगरी के राजा चेटक की पुत्री प्रभावती के साथ हुआ था राणी प्रभावती बालपने से ही जैनधर्म की उपासना करने में सदैव तल्लीन रहती थी राणी प्रभावती के अन्तेवर गृह में एक जैन मन्दिर था जिसके अन्दर देवकृत भगवान महावीर की गोसीस चन्दन मयमूर्ति थी इस मूर्ति के विषय एक चमत्कारी कथा लिखी है वह अन्यत्र लिखी गई है यहाँ तो इतना ही कह दिया जाता है कि राजा उदाइ और राणी प्रभावती उस महावीर मूर्ति की त्रिकाल सेवा पूजा किया करते थे कभी कभी राणी नृत्य करती और राजा बीना बजाया करता था रानी प्रभावती के एक कुब्जा दासी थी जिसका रुप तो ऐसा सुन्दर नहीं था पर उसके अन्दर गुण अच्छे सुन्दर थे विशेष में कुब्जा दासी जिन तिभा की भक्ति तन मन से करती थी भाग्यवसात् एक श्रावक ने साधर्मीपने के नाते उस दासी को देव चमत्कृत ऐसी गुटका ( गोलियाँ) दी कि जिसके खाने से दासी का रूप देवांगना जैसा हो गया था। राजा उदाइ और राणी प्रभावती के एक अभीच नाम का कुँवर था तथा राजा उदाइ के बहिन का पुत्र केशीकुवार नाम का भानेज भी था । जब रानी प्रभावती ने भगवान महावीर के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली तघ महावीर मूर्ति की सेवा पूजा कुब्जा दासी किया करती थी जब उसका रूप सुंदर हो गया तो उसका नाम बदल कर सुवर्णगुलेका रख दिया था उज्जैन का राजा चण्ड प्रद्योतन ने सुवर्ण गुलिका दासी के रूप की बहुत प्रशंसा सुनी तो उसका दिल दासी को अपने वहाँ बुलाने का हुआ राजा ने किसी दूती के साथ कहलाया तो दासी ने कहा कि राजा स्वयं यहाँ आवे तो मैं उससे वार्तालाप करूँ। खैर गर्जवान् दर्जवान् क्या क्या नहीं करता है। राज चण्ड प्रद्योत हस्ती पर सवार हो गुप्त रूप से वीतभय पट्टन गया और संकेत किया स्थान पर दासी से मिल राजा ने दासी का रूप देख विशेष मोहित हो गया और उससे उज्जैन चलने के लिये प्रार्थना की दासी राजा की बात तो स्वीकार करली कारण राजा उदाई को तो दासी भपने पिता तुल्य समझती थी जब चण्ड प्रद्योतन जैसा राजा प्रार्थना करे दासी को ऐसा गज। कब मिलने का था फिर भी दासी ने कहा मैं आपर्य साथ चलने को तैयार हूँ पर मैं भगवान महावीर की मूर्ति की पूजा करती हूँ और मुझे अटल नियम भी। अतः मैं मूर्ति को छोड़ कर कैसे चल सकूँ ? इस पर राजा ने कहा कि मूर्ति को भी साथ में लेलो। मरि साथ में लेने से तत्काल ही राजा उदाई को मालूम हो जायगा अतः इस मूर्ति के सदृश दूसरी मूर्ति बनवाद जाय कि इस असली मूर्ति के स्थान नकली मर्ति रखदी जाय गजा ने दासी का कहना स्वीकार कर बापिर उज्जैन पाया और चन्दन मय महावीर मूर्ति बना कर हस्ती पर लेकर पुनः वीतवयपट्टण पाया असत मूर्ति के स्थान नकली भूर्ति रख दासी और मूर्ति को लेकर उज्जैन आ गये । पीछे दूसरे दिन राजा दश करने को गया तो मूर्ति के कण्ठ में पुष्पों की माला कुमलाई हुई देखी तो उसे मालूम हुआ कि यह मू असली नहीं है जब दासी को बुलाया तो वह भी न मिली राजा उदाई ने सोचा कि सिवाय चण्ठप्रद्योत राजा के दासी एवं मूर्ति को लेजा नहीं सके खैर राजा उदाई ने इसको खबर मंगाई तो उसकी धारणा सा ही निकली राजा उदाई अपनी सेना तथा दस मुकटबन्ध राजा जो अपने अधिकार में थे उनके साथ भाव प्रदेश पर चढ़ाई करदी । राजा चण्ड को खबर हुई तो वह भी अपनी सैना लेकर सामना किया वे ९७० सिन्धु देश का राजा उद www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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