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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ सिक्के ऐसे भी हैं कि दो सिके साथ में जुड़े हुए हैं वे ढाल में सिके हैं कारण जिस भूमि पर धातु रस ढाले थे उस भूमि में दो सिक्कों के बीच जो थोड़ी सी भूमि रखा गई थी उस भूमि में थोथी-खालमी जमीन रह गई हो कि वे दो सिके साथ में ढल गये और साथ में ही रह गये शेष सिक्के दोनों ओर छाप खुदी हुई और एक-एक जुदा २ है जिसमें टंकसालों और ढाल में दोनों प्रकार के सिक्के हैं । प्राप्त हुए सिक्काओं पर चिन्ह के लिए शायद उस जमाने में आत्माश्लाघा के भय से अपना नाम नहीं चुदवाते होगे ? यही कारण है कि अधिक सिक्काओं पर नरेशों का नाम एवं संवत् नहीं पाया जाता है पर उन सिक्काओं पर सजायों के वंश या धर्म के चिन्ह खुदवाये जाते थे शायद वे लोग अपने नाम की बजाय वंश एवं धर्म का ही अधिक गौरव समझते थे। उदाहरण के तौर पर कतिपय नरेशों के सिक्काओं पर अंकित किये जाने वाले चिन्हों का उल्लेख कर दिया जाता है कि जिससे यह सुविधा हो जायगी कि अमुक चिन्ह वाला सिक्का अमुक देश एवं अमुक वंश के राजाओं का पढाया हुश्रा सिक्का है तथा वे गजा किस धर्म की आराधना करने वाले थे। १ शिशु नागवंशी राजाओं का चिन्ह नाग (सर्प) था तथा नन्दवंशी राजा भी शिशुनाग वंश की एक छोटी शाखा होने से उनका चिन्ह भी नाग का ही था विशेष इतना ही था कि शिशुनाग वंश बड़ी शाखा होने से बड़ा नाग अथवा दो सर्प और नन्दवंशी लघु शाखा होने से छोटा नाग तथा एक नाग का चिन्ह खुदाते थे । इन दोनों शाखाओं के सिक्के मिल गये और उनके ऊपर बतलाये हुए चिन्ह भी हैं । २--मौर्यवंश के राजाओं के सिक्कों पर वीरता सूचक अश्व तथा अश्व के मयूर की कलंगी का भी चिन्ह होता था। ३--सम्राट् सम्प्रति था तो मौर्यवंशी पर आपकी माता को हस्ती का स्वप्न आया था अतः सम्राट ने अपना चिन्ह हस्ती का रखा और ऐसे बहुत से सिक्के मिल भी गये हैं। ४ तक्षशिल के राजाओं का चिन्ह धर्म चक्र का था ऐसे भी सिक्के उपलब्ध हुए हैं । ५ अंगदेश के नरेशों का चिन्ह स्वास्तिक का था। ६ वत्सदेश के राजाओं का चिन्ह छोटा वच्छड़ा का था। ७ आवंति-उज्जैन नगरी के भूपतियों के सिक्के पर एक चिन्ह नहीं कारण इस देश पर अनेक नरेशों ने राज किया और वे अपने अपने चिन्ह खुदाये थे तथापि राजा चण्डप्रद्योतन के सिक्काओं पर --C-J. B. P. 18:-The earliest of there copper coins, some of which may be as early as fifth centuary B. C. were cast P. 19. We find such cast coins being issued at the close of the third centuary by kingdoms of kaushambi, Ayodhya and Mathura. २--C.J. B. P. 18:-The earliest diestruch coins with a device of the coin ünly, have been assigned to the end of the & 4th Century B. C. Some of these with a lion device, were certainly struck at Taxilla where there are .chiefly found P. 19.-The method of striking these carly coins was peculiar, ia that the dits was impressed on the metal when hof So that a deep square incure which contains the device, appears on the coin. सिकाओं पर चिन्ह ९८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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