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वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तलवार का चिन्ह कहा जाता है जो वीरता का चिन्ह था ।
८ कोशल देश के राजाओं का चिन्ह वृषभ तथा तावृक्ष का था।
९ पंचाल देश के नरेशों का चिह एक देह के पांच मस्तक कारण इस देश में राज कन्या द्रौपदी ने पांच पाण्डवों को वर किये थे।
१० आयुद्धम देश के राजाओं का चिन्ह शूरवीर का था। ११ गर्दभ भीलवंशी का चिन्ह गर्दभी का जो उनको विद्यासिद्ध थी। १२ चष्टानवंशी राजाओं का चिन्ह चैत्य सूर्य चन्द्र या उनके नाम १३ कुशान वंशी नरेशों का चिन्ह चैत्य या हस्ती सिंह का था । १४ गुप्तवंशी राजाओं का चिन्ह स्वस्तिक एवं चैत्य का था । १५ आंघवंशी नरेशों का चिन्ह तीर कबाण का था ।
इनके अलावा छोटे बड़े राजाओं ने भी अपने सिक्कों पर संकेतिक तथा अपने अपने धर्म का चिन्ह खुदाया करते थे । इससे पाया जाता है कि उस समय के राजाओं को अपने नाम की अपेक्षा अपने धर्म का गौरव विशेष था । जब हम जैनधर्म का इतिहास का अवलोकन करते हैं तो ई. सं. की छठी शताब्दी से ई० सं० की तीसरी चतुर्थी शताब्दी तक थोड़ा सा अपबाद छोड़ के सब के सब राजा जैन धर्म पालन करने वाले ही दृष्टि गोचर होते हैं। और उन नरेशों ने अपने २ सिक्काओं पर जो चिन्ह खुदाये हैं वे सब जैन धर्म से ही सम्बन्ध रखते हैं जैन धर्म के मुख्य चिन्हों के लिये कहा जाय तो वर्तमान का पेक्षा चौबीस तीर्थकर हुए उन तीर्थङ्करों की जंघा पर एक एक शुभ लक्षण होता है जिसकों लंछन एवं चिन्ह कहा जाता है और वर्तमा। में जैनों की मूर्तियों भी पर वे ही चिन्ह अंकित हैं जैसे तीर्थङ्करों के क्रमशः १ वृषभ २ हस्ती ३ अश्वर ४ बंदर ५ कोच पाक्षी ६ पद्मकमल ७ स्वस्तिक ८ चन्द्र ९ मगर १० वत्स ११ गैंडा १२ भेसा १० बराह १४ सिंचानक १५ बन १६ मृग १७ बकरा १८ नन्दावर्तन १९ कलस २० काछप २१ कमल २२ शङ्क २३ सर्प २४ सिंह जिसमें वृषभ हस्ती अश्व स्तिक नाग और सिंह यह बहुत प्रसिद्ध हैं इनके अलावा तीर्थकरदेव की माता को गर्भ समय चौदह स्वप्न के दर्शन भी होते हैं जैसे - वृषभ, सिंह, हस्ती, पुष्पमाल, लक्षमीदेवी, सूर्य, चन्द्र, ध्वज, कलस पदमसरोवर विमान खीरसमुद्र रत्नों की रासी और निधूम अग्नि । अतः जैनधर्म के भक्त राजा उपरोक्त चिन्हों से यथा रुची कोई भी चिन्ह अपने सिक्काओं पर अंकित करवा सकते थे और ऐसा ही उन्होंने किया है। ____ वर्तमान समय जितने सिक्के मिले हैं उनमें से बहुत से सिक्काओं पर ऊपर बतलाये हुए चिन्ह विद्यमान हैं इससे पाया जाता है कि वे नरेश प्रायः जैनधर्म के ही उपासक थे और अपने धर्म गौरव के कारण ही अपने सिक्कों पर धर्म की पहचान के लिये वे चिन्ह खुदाये गए थे। पर दुःख है कि कई विद्वानों ने उन सिक्काओं को बौद्ध धर्मोपासक नरेशों का लिख दिये । इसका मुख्य कारण यह था कि उन्होंने जैनधर्म के साहित्य का पूर्णतय अध्ययन नहा किया था। पर बाद में जब उन विद्वानों ने जैनधर्म के साहित्य का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया तो उनका भ्रम कुछ अंश में दूर हो गया जैसे मथुरा का सिंह स्तम्भ को पहला पाश्प्रत्य विद्वानों ने बोद्धधर्म का ठहरा दिया था पर बाद में उसको जैनधर्म का साबित कर दिया । इस
तीर्थंकरों के चिन्ह
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