SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ प्रकार अनेक गलतियां रह गई हैं जिसको मैं यहां पर युक्ति एवं प्रमाणों द्वारा साबित कर बतलाऊंगा कि वे निर्पक्ष विद्वान किस कारण से भ्रांति में पड़ कर जैनों के लिये इस प्रकार अन्याय किया होगा ? भारतीय धर्मों में केवल दो धर्म ही प्राचीन माने जाते हैं १--जैनधर्म २ वेदान्तिक धर्म । और ३० सं० पूर्व छटी शताब्दी में एक धर्म और उत्पन्न हुआ जिसका न'म बौद्धधर्म था जिसके जन्मदाता थे महात्मा बुद्ध । इन तीनों धर्मों में जैन और बौद्ध धर्म के आपस में तात्विक दृष्टि से तो बहुत अन्तर है पर बाह्य रूप से इन दोनों धर्म का उपदेश मिलता जुलता ही था इन दोनों धर्म के महात्मा ओं ने यज्ञ में दी जाने वाली पशु बली का खूब जोरों से विरोध किया था इतना ही क्यों पर उन दोनों महापुरुषों ने यज्ञ जैसी कुप्रथा को जड़ामूल से उखेड़ देने के लिये भागीरथ परिश्रम किया था और उसमें उनको सफलता भीअच्छी मिली थी यही कारण है कि उन महापुरुषों ने भारत के चारों ओर अहिंसा परमोधर्मः का खूब प्रचार किया अतः वेदान्तिक मत वाले इन दोनों धर्मों जैन-बोद्ध को नास्तिक कह कर पुकारते थे इतना ही क्यों पर उन ब्राह्मणों ने अपने धर्म ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर जैन और बौद्धों को नास्तिक होना भी लिख दिया और अपने धर्मानुयायियों को तो यहां तक आदेश दे दिया कि जहां जहां धर्म का प्रवल्यता है वहाँ ब्राह्मणों को सिवाय यात्रा के जाना ही नहीं चाहिये देखो 'प्रबन्ध चन्द्रोदय का ८७ वाँ श्लोक की उसमें स्पष्ट लिखा है कि अंग बंग कलिंग सौराष्ट्र एवं मगद देश में जाने वाला ब्राह्मग को प्रायश्चित लेकर शुद्ध होना होगा। पद्म पुराण में लिखा है कि कलिंग में जाने वाले ब्राह्मणों को पतित सममा नायगा। महाभारत का अनुशासन पर्व में गुजर ( सौराष्ट्र ) प्रान्तों को म्लेच्छों का निवास स्थान बतलाया है इत्यादि । इससे पाया जाता है कि इन देशों में जैन राजाओं का राज एवं जैन धर्म की ही प्रबल्यता थी। दूसरा एक यह भी कारण था कि ब्राह्मणों ने वर्ण जाति उपजाति आदि उच्च नीच की ऐसी वड़ा बन्धी जमा रक्खी थी जिसमें विचारे शूद्रों की तो घास फूस जितनी भी कीमत नहीं थी धर्म शास्त्र सुनने का तो उनको किसी हालत में अधिकार ही नहीं था यदि कभी भूल चूक के भी धर्म शास्त्र सुनले तो उनको प्राणदंड दिया जाता था और इन बातों का केबल जबानी जमा खर्च ही नहीं रखा था पर सताधारी ब्राह्मणों ने अपने धार्मिक ग्रन्थ में भी लिख दिया था देखिये नमूना । "अथ हास्य वेदमुप शृण्व तस्त्र पुजुतुम्यां श्रोतग्रति पुरण मुदारणे जिह्वाक्छेदो धारणे भेदः "गौतम धर्म सूत्रम् १९५” अर्थात् वेद सुनने वाले शूद्र के कानों में सीसा और लाख भर दिये जाय, तथा वेद का उच वारण करने वाले शूद्र की जबान काट ली जाय और वेदों को याद करने एवं छूने वाला शूद्र का शरीर काट दिया जाय। न शुद्राय मति दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्, नचास्योपदिथेद्धर्म न चास्यव्रतमादिशेत् ॥१४॥ “वाशिप्तधर्म सूत्र" अर्थात् शूद्र को बुद्धि न दें उसे यज्ञ का प्रसाद न दें और उसे धर्म तथा व्रत का उपदेश भी न दें। . इससे क्या अधिक कठोरता हो सकती है इसका अर्थ यह हुआ कि विचारे शू द्र लोग मनुष्य जन्म लेकर भी अपनी आत्मा का थोड़ा भी विकाश नहीं कर सके ? परन्तु भला हो भगवान महावीर एवं पाश्चात्यों के संस्कार ९९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy