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वि० सं० ५२०-५५८]
[ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहास
महात्मा बुद्ध का कि उन्होंने उच्च नीच वर्ण जातिओं उपजातियों का फैला हुआ विष वृक्ष को जड़ा मूल से उखेड़ कर फेंक दिया और धर्म मोक्ष के लिये सबको सम भावी बनाकर सबके लिये धर्म का द्वार खोल दिया । यह केवल कहने मात्र की ही बात नहीं थी पर उन महात्माओं का प्रभाव उनके भक्तों पर इतना जल्दी एवं जबर्दस्त पड़ा कि सम्राट श्रेणिक ने अपनी शादी एक वैश्य कन्या के साथ की तथा अपनी एक पुत्री को वैश्य के साथ तब दूसरी पुत्री को शूद्र के साथ परणा दी यह प्रथा केवल राजा श्रेणिक के समय प्रचलित होकर बन्ध नहीं हो गई पर बाद में भी जैनों ने खूब जोर से जहारी रक्खी थी जैसे दूसरा नंही राजा ने दो शूद्र कन्या के साथ विवाह किया, मौर्य चन्द्रगुप्त ने यूनानी बादशाह की कन्या के साथ शादी की सम्राट अशोक विदशा नगरी के वैश्य कन्या से विवाह किया आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के क्षत्रियों और ब्राह्मणों को प्रतिबोध कर जैन बनाये उन्होंने भी ब्राह्मणों की अनुचित साता को उन्मूलन कर सबको समभावी बना दिये इसकी नींव डालने वाले भगवान महावीर ही थे और यह कार्य ब्राह्मण धर्म के खिलाफ ही थे अतः वे ब्राह्मण जैन और बौद्धों को नास्तिक माने एवं लिख दें तो इसमें आश्चर्य जैसी बात ही क्या हो सकती है उस समय एक ओर तो ब्राह्मणों की अनुचित सत्ता तथा यज्ञादि क्रिया काण्ड में असंख्य मूक प्राणियो की बली से जनता त्रासित हो उठी थी तब दूसरी और जैन एवं बोद्धों की शान्ति एवं समभाव का उपदेश फिर तो क्या देरी थी केवल साधारण जनता ही नहीं पर बड़े बड़े राजा महाराजा भगवान् महावीर के शान्ति झंडा के नीचे आकर शान्ति का श्वास लिया जिसमें भी महात्मा बुद्ध की बजाय जनता का झुकाव महावीर की ओर अधिक रहा था इसका कारण एक तो जैन धर्म प्राचीन समय से ही चलता आया था भगवान महावीर के पूर्व भ० पार्श्वनाथ के संतानिय केशीश्रमणाचाय ने बहुत सा क्षेत्र साफ कर दिया था तब महात्मा बुद्ध जैन धर्म की दीक्षा छोड़ अपना नया मत निकाला था अतः जनता का सद्भाव उनकी और कम होना स्वाभाविक था खैर कुछ भी हो पर उस समय वेक्षन्दिक धर्म बहुत कमजोर हो चुका था विद्वानों का कहना है कि यदि शृंगवंशी पुष्पमित्र ने जन्म नहीं लिया होता तो संसार में वैदिक धर्म का नाम शेष ही रह जाता यही कारण है कि जितने प्राचीन स्मारक जैन एवं बौद्धों के मिलते हैं वेदान्तियों के नहीं मिलते हैं।
मेरे इस लेख का सारांश यह है कि उपरोक्त कथनानुसार श्रामण धर्म वाले जैन और बौद्ध को अपने प्रतिपक्षी एक से ही समझते थे अतः उन्होंने अपने विरोध में जैन और बौद्धों को एक ही समझ कर जहाँ जैनों की घटनाए थी उन सबको बौद्धो के नाम पर चढ़ा दी अर्थात् बौद्ध धर्म के पक्षपात ने जैनों की प्राचीनता को प्रकट करने से रोक दिया फल यह हुआ कि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदान्तियों का अनुकरण कर उन्होंने भी ऐसी ही भूल कर डाली और बहुत से जैनों के स्मारक थे उनको बौद्धों के ठहरा दिये ।
अब जैन और बौद्धों के विषय में भी जरा ध्यान लगाकर देखें कि जैन एवं बौद्धों का अहिंसा के विषय में उपदेश तो मिलता झूलता ही था पर जैन जैसा अहिंसा का उपदेश देते थे वैसे ही आचरण में पालन भी करते थे पर बौद्धों ने ऐसा नहीं किया बाद में वे अहिंसा का उपदेश करते हुए भी मांसाहारी बन गये यही कारण है कि जिस भारत भूमि पर बुद्ध धर्म का जन्म हुआ था उस भारत को छोड़ बौद्धो को पाश्चात्य प्रदेशों में जाना पड़ा। हाँ बौद्ध धर्म के नियम गृहस्थों के सब तरह से अनुकूल होने से वहाँ के लोनों ने ९९२
पाश्चात्यों के संस्कार
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