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________________ वि० सं० ११२८-११७४] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास किया था । मारवाड़ प्रान्तीय भीमाल ( भिन्नमाल ) नगर में आपने सब से पहिले जैनधन के बीजारोपण किये । राजा जयसेनादि १०००० घरों को परम पवित्र जैनधर्म की दीक्षिा से दीक्षित कर उन्हें सत्पथानुगामी बनाया। इस तरह श्राचार्यश्री के कठोर प्रयत्न से रक्तामिषाहारी भिन्नमाल नगर धर्मपुर बनगया। सर्वत्र जैनधर्म की अहिंसा-पताकाएं दृष्टिगोचर होने लगी। पर काल की कुटिल गति एवं भयानक चक्र से कोई भी सुरक्षित न रह सका । यही कारण था कि कालान्तर में राजपुत्र भीमसेन और चंद्रसेन के परस्पर मनो मालिन्य होगया। बस चन्द्रसेन ने आबू के पास चंद्रावती नगरी बसाई जिससे भीमसेन की धर्मान्धता से पीड़ित जैन जनता नूतन नगरी चंद्रावती में जाबसी। अब तो श्रीमाल नगर में शिवधर्मोपासक ही रह गये । इस हालत में राजा भीमसेन ने अपने श्रीमाल नगर के तीन प्रकाट वनवाये, जिसमें प्रथम पर कोट में कोट्याधीश एवं अर्बपति, दूसरे में लक्षाधीश एवं तीसरे परकोट में सर्व साधारण जनता । इस प्रकार नगर की व्यवस्था कर आपने अपने नाम पर नगर का नाम भिन्नमाल रख दिया । जिस समय का हम इतिहास लिख रहे हैं उस समय भिन्नमाल में पोरवालों श्रीमालों के सिवाय उपकेश वंशीय लोग भी सुविशाल संख्या में आबाद थे और वे जैसे व्यापारी थे वैसे राज्य के उच्च पदाधिकारों पर भी प्रतिष्ठित थे। ये लोग धनाढ्य एवं व्यापार कला पटु थे। इनमें जगत्प्रसिद्ध, नरपुङ्गव भैंसाशाह सेठ भी एक थे। पाठक वर्ग भैंसाशाह की जीवन घटनाओं, व्यापारिक कुशलताओं एवं आपकी माता के द्वारा निकाले गये संघ के वृत्तान्त को तो पूर्व प्रकरणों में पढ़ ही आये हैं । जैन समाज के लिये ही नहीं अपितु समस्त व्यापारी एवं जन साधारण समाज के लिये आप गौरव के विषय थे। आप पर आचार्यश्री ककसूरिजी महाराज एवं आपके पट्टधर श्रीमान् देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज की परम का थी। देवी सच्चायिका का आपको इष्ट था और उसी प्रबल इष्ट के आधार पर आपने कई असाधारण कार्य कर दिखलाये थे । अापने अपने जीवन रंगमञ्च पर कर्म सूत्रधरों का विचित्र २ नाटक देखा उनके भीषण यातनाओं एवं दारिद्रय जन्य असह्य दुःखों को सहन किया पर अपने कर्तव्य मार्ग से किञ्चित भी स्खलित नहीं हुए। आपका ही नहीं पर आपकी धर्मपरायणा धर्म-पत्नी श्रीमती सुगनीवाई का भी इस भयंकर अवस्था में इतना उच्चकोटि का धैर्य्य गुण रहा कि वे दुःखित होने के बजाय समय २ पर अपने पति देव प्रोत्साहन एवं सहायता दिया करती थी । नीतिकारों ने महिलाओं के गुण बतलाये वे सब गुण माता सुगनी में विद्यमान थे। माता सुगनी उदार दिल से प्रत्येक धर्म कार्य में परमोत्साह पूर्वक भाग लिया करती थी। आपका जीवन बड़ा ही शान्तिमय एवं कल्याण की शुभ भावनाओं से ओतप्रोत था। भैंसाशह और सुगनी के सात पुत्र व पांच पुत्रियां थी। इनमें धवल नाम का एक पुत्र बड़ा ही होनहार एवं पुण्यशाली था। भैंसाशाह की सघ अाशाएं उसी पर अवलाम्बित थी । गाईस्थ्य जीवन, सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों एवं व्यापारिक स्थलों में धवल का सहयोग स्तुत्य, प्रशंसनीय एवं आदरणीय था। जिस समय भैंसाशाह की माताने तीर्थ श्रीशत्रुञ्जय का संघ निकाला था और किसी विशेष कारण से भैंसाशाह का संघ में जाना न होसका तब उस विराट् संघ की सब व्यवस्था का भार धवल पर ही अबलम्बित था । धार्मिक कार्य में कुमार धवल की शुरु से ही अभिरुचि थी यही कारण था कि प्राचार्यश्री देवगुप्त सूरि की सेवा भक्ति में धवल सदैव उपस्थित रहता था। आचार्य देवगुप्तसूरि ने धवल की धवल आत्मा जानकर एक दिन उपदेश दिया-धवल ! यदि तू दीक्षा ले लेतो निश्चित ही मेरे जैसा आचार्य होकर संसार का उद्धार करने में समर्थ बन सकता है। धवल-पूज्य गुरुदेव ! मेरा ऐसा भाग्य ही कहां है कि दीक्षा लेकर आपश्री के चरणारविंद की सेवा कर सकूँ । पूज्येश्वर ! हम गृहस्थ हैं और हमारे पीछे उनके उपाधियां लगी हुई हैं, जिनसे मुक्त होना दुःसाध्य १४८० धवल की विमलात्मा पर उपदेश का प्रभाव For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org,
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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