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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १५०८-१५२८
है। धन्य है श्राप जैसे त्यागी वैरागी श्रमण निर्ग्रन्थों को जिन्होंने सांसारिक जीवन सम्बन्धी सम्पूर्ण उपाधियों एवं प्रपश्चों का त्याग कर मोक्षमार्ग जैसे उत्कृष्टतम मार्ग आराधन में संलग्न होगये। गुरुदेव ! दीक्षा, कोई साधारण कार्य नहीं है । यह इस्तिों का भार हम जैसे गीदड़ कैसे सहन कर सकते हैं ?
सूरिजी-धवल ! तेरा कहना कुछ अंशों में ठीक है कि संसारी जीवों के अनेक उपाधियां लगी रहती हैं और उन उपाधियों से मुक्त होकर सर्वथा स्वतंत्र होने के लिये ही तीर्थंकर देवों ने उपदेश दिया है उनके उपदेश से केवल साधारण व्यक्तियों ने ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा एवं चक्रवर्तियों ने भी सब उपाधियों का त्याग कर दीक्षा स्वीकर की है। हमारे पास में जितने साधु वर्तमान हैं उनके पीछे भी थोड़ी बहुत उपाधियां तो अवश्य थी पर संसार भ्रमन से भयभ्रान्त हो सर्पकंकुलवत् उसका त्याग कर आज प्रमोदपूर्वक मोक्ष मार्ग की आराधना कर रहे हैं । दूसरा दीक्षा का पालन करना कठिन है, यह बात तो सर्वथा सत्य ही है पर जब नरक निगोद के दुखों का श्रवण करेगा तो ज्ञात होगा कि दीक्षा का दुःख उस दुःख के समक्ष नगण्य ही है । तुम तो क्या ? पर सेठ शालीभद्र को तो देखो कि वे कितने सुकुमाल और कितने धनी थे ? पर जब उन्होंने भी ज्ञान एवं अनुभव दृष्टि से संसार के दुःखों का अनुभव किया तब बिना किसी संकोच एवं कठिनाई के सहसा ही संसार सम्बन्धी सम्पूर्ण सुख साधनों का त्याग कर दीक्षा स्वीकार करली अतः आत्म कल्याण की भावना वालों के लिये दीक्षा जैसा कोई सुख ही नहीं है । शास्त्रों में तो यहां तक बतलाया है कि पन्द्रह दिन की दीक्षा वालों को जितना सुख है उतना व्यन्तर देवताओं को भी नहीं है। इस तरह क्रमशः एक वर्ष के दीक्षित
व्यक्ति के सुखो की बराबरी सवाथे-सिद्ध महाविमान के अनेक ऋद्धियों के स्वामी देवता भी नहीं सकते हैं। धवल ! जरा गम्भीरता पूर्वक आन्तरिक आत्मा से भात्मिक अनंत सखों का विचार तो कर ! अरे ये पौद्गलिक सुख साधन तो अपनी सीमित अवस्था को लिये हुए ही पैदा होते हैं। अतः सर्व समर्थ साधनों के होते हुए हमें मोक्ष के अक्षय सुखों की प्राप्ति का ही उपाय करना चाहिये जिससे कभी भी हमें सांसारिक जन्म जरा मरण रूप दुःखों का अनुभव नहीं करना पड़े।
धवल-गुरुदेव ! श्रापका कहना तो सत्य है, पर यदि मैं दीक्षा लेने का विचार भी करूं तो मेरे मातपिता मुझे कप दीक्षा लेने देबेंगे।
सूरिजी-धवल ! तू दीक्षा ले या मत ले; इसके लिये हमारा कोई अाग्रह नहीं है उपदेश देकर किसी भी भव्यात्मा का कल्याण करना हमारा परम कर्तव्य है और उसी कर्तव्य धर्म से प्रेरित हो मैंने तुझे उपदेश दिया है। यदि तेरी आन्तरिक इच्छा दीक्षा लेने की हो तो मेरे अनुमान से भैंसाशाह कभी भी इस पवित्र
में अन्तराय नहीं डालेंगे। पहिले तो तू तेरी आत्मा का निश्चय करले । आत्मिक दृढ़ता एवं मनः स्थिरता के बिना संयम साधक वृतियों का निर्वाह सर्वथा दुःसाध्य है। अतः सर्व प्रथम आत्मा को वैराग्य के पक्के रंग से रंगता अनिवार्य है।
धवल-गुरु महाराज ! मैंने तो मेरी आत्मा से यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मेरे माता पिता मुझे सहर्ष दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान करेंगे तो मैं बिना किसी हिचकिचाहट के आपकी सेवा में शीघ्र ही भगवती दीक्षा स्वीकार करलूंगा।
सूरिजी-धवल ! अपना कल्याण करना यह तो एक साधारण बात है और वह गृहस्थावस्था में रह कर ही सहज साध्य है पर दीक्षा लेकर शासन की सेवा और हजारों का कल्याण करना यह निभित ही विशेष कार्य है । मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि तू दीक्षा लेगा तो गच्छाधिपति बनकर अनेक भव्यों का कल्याण करेगा।
धवल-तथास्तु गुरुदेव ! इस प्रकार सूरिजी के आदरणीय वचनों को सहर्ष स्वीकार कर आचर्यश्री सूरिजी और धवल के आपस में वार्तालाप ...
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