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________________ वि० सं० ११०८ - ११२= ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को वंदन किया और तत्काल अपने कार्य में लग गया । इधर सूरिजी के सम्पर्क से धवल की वैराग्य भावना द्विगुणित होने लग गई। जब संघ यात्रा कर पुनः भिन्नमाल आया तब धवल ने अपने माता पिता से कहा - पूज्यवर ! यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है । पुत्र के इस प्रकार वैराग्यमय वचनों को श्रवण कर धवल की माता को दुःख हुआ पर भैंसाशाह ने तनिक भी रंज नहीं किया। वे तो प्रसन्न चित्त होकर कहने लगे बेटा ! तू भाग्यशाली है। मेरे दिल में केवल एक यही बात थी कि मेरे घर से कोई एक भावुक दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करे तो मैं सर्वथा कृत्यकृत्य होजाऊं कारण अब मेरे यही कार्य शेष रहा है। देख, मन्दिर मैंने बना लिया, और संघ माताजी ने निकाल दिया । सूरिपद का महोत्सव, चातुर्मास एवं आगम भक्ति भी कर चुका हूँ। बस अब यही एक कार्य अवशिष्ट रहा है जिसकी पूर्ति तेरे द्वारा हो रही है। बेटा मेरा कर्तव्य तो यह है कि मैं भी तेरे साथ दीक्षा लूं और दीक्षा अङ्गीकार करना मैं अच्छा भी समझता हूँ पर क्या करूं अन्तराय एवं चारित्र मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से दीक्षा के लिये मेरा उत्साह नहीं बढ़ता । दूसरी मेरी वृद्धावस्था आचुकी है और वृद्धा माता की सेवा करना मेरा परम कर्तव्य भी है। अतः इच्छा के होते हुए मैं दीक्षा के लिये सब प्रकार से लाचार हूँ । अपने पतिदेव के उक्त समर्थक एवं वैराग्यवर्धक वचनों को सुनकर धवल की माता को अतिशय दुःख हुआ। उसने कोप के साथ कहा- आप भले ही धवल को दीक्षा दिलाने का प्रयत्न करें पर मैं धवल को कभी भी दीक्षा नहीं लेने दूंगी | भैंसाशाह ने कहा- मैं धवल की दीक्षा के लिये प्रयत्न नहीं करता हूँ पर धवल का निश्चित विचार दीक्षा लेने का होगा तो मैं अनुमोदन अवश्य करूंगा। आपको भी मोह जन्य प्रेम का त्याग कर मेरी बात का समर्थन करना चाहिये क्योंकि संसार में जन्म लेकर मरने वाले तो बहुत हैं पर अपने माता पिता एवं कुल के नाम को उज्ज्वल करने वाले विरले ही हैं "स जातो येन जातेन याति वंश समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ " भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र एवं राजा श्रेणिक ने अपने कुटुम्ब को आदेश दे दिया था कि हमारे से तो अन्तराय कर्मोदय के कारण दीक्षा ली नहीं जाती है पर जो कोई दीक्षा लेना चाहता हो उसके लिये हमारी सहर्ष आज्ञा है । दीक्षा का महोत्सव भी हम लोग करने को तैय्यार हैं। भला अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये दीक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य में अन्तराय देना कितनी भूल है ? अब तो आपको प्रसन्न चित्त होकर धवल को दीक्षा की आज्ञा प्रदान करनी चाहिये । इस प्रकार भैंसाशाह ने अपनी धर्मपत्नी को समझाया कि वह भी हर्षल को दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान करने को उद्यत होगई । धर्मनिष्ठ भैंसाशाह ने आचार्यश्री देवगुप्तसूरि की सेवा में जाकर निवेदन किया कि पूज्यवर ! बड़ी खुशी की बात है कि धवल आपश्री के पास दीक्षा लेने चाहते हैं । हमको इस विषय का बड़ा ही गौरव है। आप खुशी से उसे दीक्षा देकर उसका आत्म-कल्याण करें। सूरिजी ने भैंसाशाह के उक्त निस्पृह एवं मोह रहित वचनों सुनकर आश्चर्य किया कि इस प्रकार अपने सुयोग्य पुत्र को दीक्षा के लिये आज्ञा देना इस मोहराजा के साम्राज्य में एक भैंसाशाह ही है। कुछ समय तक गम्भीरतापूर्वक मनन करने के पश्चात् सूरिजी ने कहा- शाहजी ! धवल बड़ा भाग्यशाली है पर आप उनसे भी अधिक पुन्यशीली हैं कि जिससे निर्मोही की तरह अपने पुत्र को सहर्ष दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान कर रहे हैं। आपके जैसे उदार गम्भीर एवं निर्मोही श्रावक संसार में कम ही हैं। इस तरह परस्पर वार्तालाप होने के पश्चात् भैंसाशाह ने जिन मन्दिरों में अष्टा न्हिका महोत्सव करवाना प्रारम्भ किया। सूरिजी ने भी दीक्षा के लिये वैशाख शुक्ला तृतीया का शुभ मुहूर्त निश्चित किया । धवल के अनुकरण रूप में करीब ११ नर नारियां दीक्षा के लिये उद्यत हो गये । भैंसाशाह के १४८२ Jain Education international • साशाह की पुत्रों को दीक्षा की श्राज्ञा For Private & Personal Use On www.jamullalary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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