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________________ श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ ५०-आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज (११ वाँ) सिद्धसूरि रथाज निष्ठ गई शाखा सुरनं महत् , विद्या लन्धि गणेषु लब्ध महिमो वापाख्य नागान्वये । कंदर्पण च निर्मिते सुभवने गच्छीय सूररेयम् , लोके भाव हरेति नामक तया ख्यातस्य चोपद्रवम् । शान्त्वानेक जनाँश्च जैन मतकान् कृत्वा सुधर्मा व्रती, जाताऽनेक जनादृतः शुभ गुणो धर्म प्रभा वर्धकः साहित्यक सुसेवया च समयं नीत्वा व्ययं अव्ययम् दृष्टवा ज्ञान मयेन शुद्ध नयन द्वन्द्वन प्राप्नोसरम् ॥ रम श्रद्धेय, शासन प्रभावक, नाना चमत्कार विद्या-कला विभूषित, दीर्घ तपस्वी, न्याय व्याकरण-काव्य-तर्क छन्द अलंकारादि विविध शास्त्र विशारद चारित्र चूडामणि, उत्कृष्ट क्रियापालक, महोपकारी आचार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज जैन जगत के के अलङ्कार स्वरूप परमादरणीय-पूजनीय थे। आपने अपनी सकल शक्तियों के संयोग एवं अपार पाण्डित्य के आधार पर जिन-शासन की जो सेवा प्रभावना एवं वृद्धि की है वह निश्चित ही स्तुत्य है। आपके जीवन सम्बन्धी छोटी मोटी चमत्कार पूर्ण घटनाओं का सविशद उल्लेख किया जाय तो सम्भवतः एक खासा मोटा ग्रन्थ तैय्यार हो जाय पर हम उतना लम्बा चौड़ा वर्णन नहीं करते हुए आपके जीवन सम्बन्ध की प्रमुख घटनाओं का हमारे इप्सित उद्देश्यानुसार संक्षिप्त ही वर्णन करेंगे। इन्हीं घटनाओं के श्राधार पर वाचक समुदाय आचार्यश्री के चमत्कार पूर्ण चरित्र का सविशेषानुमान कर सकेगे। भारतीय विविध प्रान्तों में व्यापारादि से समृद्धिशाली, भारत-भू-अलंकार स्वरूप सुविशाल मरुधर प्रान्त जग विश्रुत है । इसी पवित्र मरुभूमि में भिन्नमाल नामक एक ऐतिहासिक नगर था। इसके पूर्व इस नगर का नाम श्रीमालपुर था । लक्ष्मीदेवी वहां की अधिष्ठायिका थी अतः वहां के लोग कोट्याधीश लक्षधीश हो तो आश्चर्य की बात ही नहीं है। दरिद्रय दुःख तो उनसे कोसों दूर भाग गया था। जिस नगर की अधिष्ठायिका ही लक्ष्मी हो वहां दरिद्रता का निवास सम्भव भी कैसे है ? लोग धनधान्य, जन परिवार से समृद्धिशाली एवं पूर्ण सुखी थे। उद्विग्नत एवं खिन्नता के स्थान पर सर्वत्र प्रसन्नता ही दृष्टिगोचर होती थी। भिन्नमाल नगर का प्राकृतिक दृश्य मन मोहक एवं आनंदोत्पादक था। विविध वर्षों से वर्णित प्रासाद श्रेणियों की उतुंगता एवं फल पुष्य पादपय कलि कादि से परिशोभित उपवनों की कमनीयता, कुञ्ज, निकुञ्ज कूप सरोवर वापिकाओं की रमणीयता स्वर्गपुरी के सौंदर्य का स्पर्धा के साथ तिरस्कार कर रही थी । बसन्त ऋतु के सुन्दर समय में आनन्दोन्मत्त कोकिलकाकली, वृक्षों पर बैठी हुई विहंगम राशि कलरव श्रम से अत्यन्त अमित मानव के अथाह श्रम को क्षण भर में अपहरण कर लेता था । विविध ऋतुओं का विविध सौंदर्य निश्चित ही अपूर्व था। ___ पाठक, पूर्व प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने सर्व-प्रथम मरुभूमि में पदार्पण मरुधर देश और भिन्नमाल नगर १४७६ www.jainelibrary.org Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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