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वि० सं० ११०८-११२८ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पद का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। इस पर खूब दीर्घ दृष्टि से विचार कर सूरिजी ने संघ के समक्ष गद्गद् स्वर से कडा-महानुभावों में यह जानता हूँ कि मेरी यह प्रवृत्ति सर्वथा अनपादेय है पर अब मैं मेरी आत्मा पर विजय प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। मेरी आन्तरिक अभिलापा तो मेरे पद पर अन्य किसी योग्य मुनि को सूरि बना कर अन्य प्रदेश में चले जाने की है जिससे आप (सकल श्रीसंघ ) को सन्तोष हो और मेरी जिनभक्ति में भी किञ्चित् बाधा उपस्थित न हो। आचार्यश्री के एकदम ममत्व रहित वचनों को सुनकर श्रीसंघ को आश्चर्य एवं दुःख हुआ कारण, एक सुयोग्य आचार्य बिलकुल निर्जीव कारण के लिये पद त्याग करें यह सर्वथा विचारणीय था। श्रीसंघ ने सूरिजी को बहुत ही समझाने का प्रयत्न किया पर परिणाम सन्तोषजनक न निकला । लाचार संघ को आचार्यश्री का कहना स्वीकार करना पड़ा । सूरिजी ने भी अपने योग्य शिष्य गुणभद्र मुनि को सूरि पद प्रदान कर परम्परानुसार आपका नाम श्रीसिद्धसूरि रख दिया। आप पदत्याग कर सिद्धाचल पर चले गये और अपनी जिन्दगी शत्रुञ्जय गिरनारादि पवित्र तीर्थों पर तीर्थकरों की भक्ति में ही व्यतीत की।
__ कर्म के अकाट्य सिद्धान्तानुसार जिस जिस जीव के जिन २ कर्मों का क्षयोपशम एवं उदय होता है, तदनुसार ही जीव की प्रवृत्तियां होजाती हैं फिर भी जाति एवं कुलका यथोचित प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। श्रीसंघ के उपालम्भ एवं शास्त्र मर्यादा एवं जिन शासन की भावी क्षति को लक्ष्य में रख सूरिजी ने अपना पद त्याग करने में भी विलम्ब नहीं किया । केवल पदत्याग ही नहीं अपितु अपने वेश में भी यथानुकूल परिवर्तन कर डाला । यद्यपि भक्ति करना बुरा नहीं था तथापि साधु कर्त्तव्य के प्रतिकूल होने से आपने साधु वेश का भी त्याग कर दिया। इस घटना का समय पट्टावली में वि० सं० ६६५ का बतलाया है । ये भिन्नमाल शाखा के प्राचार्य थे ऐसा पट्टावलियों में उल्लेख है।
आचार्य ककसूरिजी जिस समय डामरेल नगर में जैनधर्म का प्रचार खूब जोरों से बढ़ा रहे थे पर यह बात कई स्वार्थी लोगों से सहन नहीं हुई अतः उन लोगों ने किसी विद्यामन्त्र बादी को डामरेल नगर में बुलवाकर अपना प्रचार-कार्य बढ़ाने का प्रयत्न शुरु किया और भद्रिक जनता को भौतिक चमत्कारों से अपनी
ओर आकर्षित भी करने लगा। ठीक है परमार्थ के अज्ञात लोग इस लोक के स्वार्थ में अन्ध बनकर अपने इष्ट में शंका करने लग गये साधारण जनता ही क्यों पर वहाँ के राव हमीर भी उन मन्त्र बादियों के भ्रम चकर में भ्रमित हो गया अतः अग्रेश्वर लोगों ने सूरिजी से प्रार्थना की। इस पर सूरिजी के पास गुणसुन्दर मुनि जो विद्यामन्त्रों का पारगामी था उसको आदेश दे दिया। अतः मुनि गुणसु दर राज सभा में गया और राव हमीर को कहा कि श्राप परम्परा से जैनधर्म के उपासक हैं और आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म सर्वोत्कृष्ट धर्म है पर इसके साथ जैनधर्म में विद्यामन्त्र की भी कमी नहीं है यदि आपको परीक्षा करनी हो तो हम तैयार हैं इत्यादि प्रेरणात्मिक शब्दों में रावजी को उत्साहित बनाया इस पर रावजी ने आये हुये विद्यावादियों को कहा और उन्होंने अपनी परीक्षा देने की उत्कएठा बतलाई उन लोगों का ख्याल था कि इतने दिनों में जैन सेवड़े कुछ भी बोल नहीं सके तो अब वे क्या कर सकेंगे। जैन सेवड़े केवल त्याग वैराग्य के ही उपदेशक है इत्यादि ठीक निश्चय दिन दोनों पक्ष के साधु व उनके भक्त लोग गज सभा में उपस्थित हुए और अपने २ विद्यामन्त्र की परीक्षा देनी प्रारम्भ की। पट्टावलीकार लिखते हैं कि विविध प्रकार से प्रयोग किया पर
आखिर में विजयमाला जैनों के ही कण्ठ में शोभायमान हुई । यही कारण था कि दूसरे दिन वादी गुपचुप रात्रि में ही पलायन होगया और आचार्य कक्कसूरि अपने शिष्यों के परिवार से वह चातुर्मास डामरेल नगर में ही कर दिया।
१४७८ Jain Educaton international
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