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वि० सं० ६८० से ७२४]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कार्य में आशातीत सफलता हस्तगत हुई । यद्यपि इस दीर्घ अवधि के बीच कई दिगम्बर भाईयों ने इर्ष्या के वशीभूत हो शास्त्रार्थ किया किन्तु उसमें वे सफलता प्राप्त नहीं कर सके उनटा उन्हें पराजित होना पड़ा।
आचार्यश्री जैसे विद्वान थे वैसे समयज्ञ भी थे । अतः समय सूचकता के साथ विद्वत्ता ही की कुशलता ने आपको चारों ओर विजयी बनाया। महाराष्ट्र प्रान्त में आपका अखण्ड विजय डंका बजने लगा आपने महाराष्ट्र प्रान्त के छोटे बड़े प्रामों एवं नगरों में परिभ्रमन कर धर्म का नवाङ्कर अङ्करित कर दिया । करीब २८ नर नारियों को दीक्षा देकर उन्हें मोक्ष मार्गाराधक बनाये । कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाकर जैनेतरों को जैन बनाने की संस्कृति को दृढ़ किया । इन सभी महत्व पूर्ण कार्यों के साथ ही साथ पाच दिगम्वर मुनियों को भी श्वेताम्बर आनम्ना की दीक्षा दी ।
एक समय आप मानखेटनगर में विराजते थे। प्रतिदिन के व्याख्यानानुसार एक दिन आपने श्रीशत्रुब्जय तीर्थ के महात्म्य एवं तीर्थ यात्रा से सम्पादन करने योग्य पुण्यों का तथा गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में से अावश्यक कार्यों का दिग्दर्शन कराते हुए शत्रुजय तीर्थ का बहुत ही विशद एवं प्रभावो. त्पादक वर्णन किया । शत्रुजय तीर्थ के इतिहास ने आगत श्रोतावर्ग पर पर्याप्त प्रभाव डाला । उस नगर के मंत्री रघुवीर पर तो उस व्याख्यान का आशातीत असर हुआ। फलस्वरूप व्याख्यान में ही शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिये संघ निकालने का चतुर्विध श्रीसंघ से आदेश मांगने के लिये एक दम खड़े हो गये और अर्ज करने लगे कि-यदि आप लोग श्राज्ञा प्रदान करें तो मैं तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकालने का लाभ प्राप्त कर सकू । श्रीसंघ ने सहर्ष आदेश प्रदान किया और आचार्यश्री ने भी--'जहासुहं' कह कर उनके उत्साह वर्धक वाक्य कहे । बस ! फिर तो था ही क्या ? स्थान २ पर संघ में पधारने के लिये आमन्त्रण पत्रिकाएं भेज दी गई । साधु साध्वियों की प्रार्थना करने के लिये योग्य पुरुष भेजे गये । क्रमशः निश्चित दिन इस संघ में ३०० श्वेताम्बारमुनि १२५ दिगम्बर साधु, और २५००० गृहस्थ सम्मिलित हुए । सूरीश्वरजी ने मंत्री रघुवीर को संघपति पद अर्पित किया । क्रमशः आचार्यश्री के नेतृत्व और मंत्री रघुवीर के संघपतित्व में संघ ने शुभशकुनों के साथ शुभशुहूर्त मे शत्रुजय की ओर प्रस्थान किया। मार्ग के मन्दिरों एवं छोटे बड़े तीर्थों की यात्रा करते हुए शत्रुजय पहुँचे । तीर्थ के दूर से दर्शन होते ही मुक्ताफल से बधाया और चैत्य वंदनादि क्रिया कर क्रमशः तीर्थ पर पहुँच गये । भगवान् आदीश्वर के चरण कमलों का स्पर्शन और द्रव्य एवं भाव पूजन कर संघ में श्रागत मानवों ने अपने पापों का प्रक्षालन किया । महा राष्ट्र प्रान्त में संघ कम निकलते थे अतः इस अपूर्व अवसर का सदुपयोग कर सब ने अपना अहोभाग्य मनाया । महाराष्ट्रीय नवीन श्रमणों एवं नये जैनों ने तो यह पहिली ही तीर्थ यात्रा की अतः सबके हृदयों में हर्ष एवं आनन्द कीअलौकिक लहरें लहराने लगी । दक्षिण विहारी साधुओं के साथ संघ, तीर्थ यात्रा करके पुनः स्वस्थान लौट आया ।
सूरिजी तीर्थ यात्रा करके खेटकपुर, करणावती, वटपर, स्तम्भन तीर्थ, भरोंच आदि विविध क्षेत्रों में विहार करते हुए श्री संघ के अत्याग्रह से भरोंच नगर में चातुर्मास कर दिया। चातुर्मास की दीर्घ अवधि में अच्छा धर्मोद्योत एवं धर्म प्रचार हुआ। चातुर्मास के पश्चात् श्रापश्री का विहार आवंतिका प्रदेश की ओर हुश्रा । उज्जैन, मांडवगढ़, मध्यायिका, महीरपुर, रतनपुर और दशपुर होते हुए आप चित्रकूट पधार गये | वहां की जनता ने आपका शानदार स्वागत एवं अभिनंदन किया। श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चातुर्मास चित्रकूट में ही करने का निश्चय किया । चित्रकूट में जैनों की घनी आबादी-विशाल संख्या थी
दक्षिण का संघ शत्रुजय
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