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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं १०८०-११२४ और वे सब भी प्रायः उपकेशवंशीय श्रावक ही थे । पूर्वाचार्यों के जीवन चरित्रों में अभी तक पाठक वृन्द बराबर पढ़ते आये हैं कि उपकेश गच्छीय आचार्यों का व उनके आज्ञानुयायी मुनियों का विहार क्षेत्र बहुत ही लम्बा चौड़ा था अतः उपकेशवंशीय श्राद्धवर्ग की संख्या विशाल हो इसमें आश्चर्य ही क्या ? इसीके अनुसार चित्रकूट भी उपकेशवंशियों का प्राचीन क्षेत्र था । उपकेश गच्छीय मुनियों का आवागमन प्रायः प्रारम्भ ही था अत: चित्रकूटस्थ श्रावक समाज का धर्मानुराग अत्यन्त सराहनीय और स्तुत्य था। सूरीश्वरजी के आगमन से व यकायक चातुर्मास के अप्राप्य अवसर के हस्तगत होने से तो श्रावक समाज के धर्म प्रेम में सविशेष अभिवृद्धि हुई। मोक्षमार्ग की आराधना के लिये सूरीश्वरजी का आगमन निमित्त बढ़िया से बढ़िया निमित्त कारण होगया । बलाह गौत्रीय रांका शाखा के श्रावक शिरोमणि, देवगुरु -भक्ति कारक, पञ्चपरमेष्टि महामंत्र स्मारक, श्राद्धगुण सम्पन्न, निम्रन्थ प्रवचनोपासक सुश्रावक शाह दुर्गा ने परम पवित्र, जयकुञ्जर, पातक राशिप्रक्षालन समर्थ, पञ्चमाङ्ग श्रीभगवतीजीसूत्र का महोत्सव किया जिसमें पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, प्रभु सवारी और स्वधर्मी भाइयों की पहिरावणी श्रादि धार्मिक कार्यों में नव लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी से श्रीभगवतीसूत्र बंचवाया । ज्ञान की पूजा माणिक, मुक्ताफल, हीरा, पन्ना एवं स्वर्ण पुष्य से की । इतना ही नहीं प्रत्येक दिन गहुली पर एक सुवर्ण मुद्रिका रखने तथा श्रीगौतमस्वामी के द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न का सुवर्ण मुद्रिका से पूजन करने का निश्चय किया। यह बात तो प्रकृतितः सिद्ध है कि जितनी बहुमूल्य वस्तु होती है उतना ही उस पर अधिक भाव बढ़ता है । श्रीभगवतीजीसूत्र का इतना बड़ा महोत्सव करने में मुख्य दो कारण थे । एक तो जन समाज के उत्साह को बढ़ाना; और श्रोताओं की अभिरुचि श्रुताराधना और ज्ञानश्रवण की ओर करना दूसरा उस समय श्रागम लिखवाकर ज्ञानभण्डार स्थापित करने की श्रावश्यकता को पूर्ण कर जैन साहित्य को अमर करना । हम पहले के प्रकरणों में इस बात को स्पष्ट कर आये हैं कि उस समय प्रेस वगैरह के सुयोग्य साधन वर्तमान वत् वर्तमान नहीं थे अतः ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें श्रागम लिखवाने एवं ज्ञान पूजा के द्रव्य का सदुपयोग करने के लिये ज्ञानभण्डार स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत होती थी । बस, उक्त कारणों से प्रेरित हो उस समय के श्राद्धवर्ग दोनों कार्यों का भार बड़ी सुगमता से अपने सिर पर उठा लेते । इससे उन्हें अनेक तरह के लाभ होते और शासन सेवा का भी अपूर्व अवसर प्राप्त होता । जैन समाज के स्थानीय उत्सवों के महात्म्य को देख इतर समाज भी सहसा हमारी ओर आकर्षित होजाती इससे शासन की प्रभावना एवं जैनियों की महत्ता बढ़ती थी। इसके सिवाय उस समय के जैनों के पुण्योदय ही ऐसा था कि वे न्याय, नीति और सत्य से द्रव्योपार्जन कर ऐसे शुभकार्यों में द्रव्य का सदुपयोग करने में अपने को परम भाग्यशाली समझते थे । श्रावकों की इतनी उदारता, श्रद्धा एवं प्रेम पूर्ण भक्ति का कारण जैन श्रमणों का निर्मल चरित्र एवं विशुद्ध निर्गन्थपना ही था उस समय के त्यागी वर्ग के पास में न तो अपने अधिकार के उपाश्रय थे और न ज्ञान कोष ही थे । न जमाबंदिये थी और न गृहस्थों से भी ज्यादा प्रपञ्च था । वे तो एकान्त निस्पृही, परम मुमुक्षु, विशुद्ध चारित्राराधक एवं श्रीसंघ के बनवाये हुए चैत्य, पौसाल, धर्मशाला या उपाश्रय में मर्यादित समय पर्यन्त स्थिरता कर विश्राम करने वाले थे। उनके हाथों में आज के सेठियों से हजारो गुने अधिक श्रीमन्त भक्त थे वे चाहते तो भाज के साधुओं से भी अपने पास अधिक आडम्बर रख सकते थे परन्तु उन महापुरुषों ने इसमें एकान्त शासन आचार्यश्री का चित्रकोट में चतुर्मास ११०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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