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________________ वि० सं० ६८० - ७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रभावना होने के बदले हानि ही समझी - लाखों रुपयों की सम्पत्ति एवं पौद्गलिक सुखों का त्याग कर श्रात्म कल्याण के लिये स्वीकृत की हुई मोक्षाराधक चारित्र वृत्ति का विघातक ही समझा है । सूरिजी महाराज के विराजने से केवल एक शाह दुर्गों को ही लाभ मिला ऐसी बात नहीं पर अन्य बहुत से श्रावकों ने भी अपनी २ शक्तयनुकूल लाभ लिया। जैन लोग हस्तगत स्वर्णवसर का लाभ उठावें इसमें तो कोई विशेष आश्चर्य नहीं पर जैनेतर लोग भी सूरीश्वर जी के व्याख्यान में जैनागमों को सुनकर जैन धर्म के परम अनुरागी बन गये । इस प्रकार इस चातुर्मास में उपकार वर्णतोऽवर्णनीय हुआ । I चातुर्मास समाप्त होते ही ७ मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर मेदपाट प्रान्त के छोटे बड़े प्रामों में जैनधर्म का उद्योत करते हुए श्राघाट, वदनेर, देवपट्टनादि, क्षेत्रों की स्पर्शना करके क्रमशः सूरीश्वरजी ने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । श्राचार्यश्री के आगमन के कर्ण सुखद एवं मनाह्लादकारी समाचारों को श्रवण कर मरुभूमिवासियों के हर्ष का पार नहीं रहा । आचार्यश्री शाकम्भरी पद्मावती, हंसावली होते हुए नागपुर पधारे। आपके दर्शन एवं स्वागत के लिये जनता उमड़ पड़ी। सपादलक्ष प्रान्त में खासी चहल पहल मचगई | आपके श्रागमन महोत्सव ने सर्वत्र धूम मचादी । मरुधरवासी आनंद सागर में निमग्न होगये । सब हृदय में धर्म प्रेम की पवित्र लहरें लहराने लगी । वास्तव में उस समय देव गुरुधर्म पर जनता की की कितनी भक्ति थी, यह तो सूरिजी के जीवन चरित्र पढ़ने से सहज ही ज्ञात होजाता है। आज का नास्तिक वाद कुछ भी कहे पर हमतो अनुभव करते हुए आये हैं कि - जहां धर्म पर श्रद्धा, भक्ति, विश्वास अधिक होता है वहां सर्वत्र सुख और आनंद ही फैला हुआ होता है । 'यतो धर्मस्ततो जयः' गीता के इस वाक्यानुसार भी उभयलोक की सुख प्राप्ति के लिये किंवा मोक्ष का अक्षय आत्मिकानंद प्राप्त करने के लिये धर्म ही साधकतम कारण है । जब उन लोगों की धर्म में अटूट श्रद्धा थी तब वे लोग परम सुखी एवं संसार में हु भी निस्पृही थे और आज इसके सर्वथा विपरित ही दृष्टिगोचर होता है अस्तु, सुख प्राप्ति के जीवन का प्रमुखलक्ष धर्म ही होना चाहिये । धर्म ही परम मङ्गल रूप है । नागपुर में सूरिजी के पधारने की खुशियां घर २ मनाई जा रही थी । नागपुर में जैनियों की विशाल संख्या थी और वह इस लाभ को यों ही खोना नहीं चाहती थीः अतः सबने मिलकर श्राचार्यश्री के पास में चातुर्मास के लिए जोरदार प्रार्थना की। सूरीश्वरजी ने भी धर्म प्रभावना का कारण जानकर तुरन्त स्वीकार करली। पूर्व जमाने में न तो इतनी लम्बी चौड़ी विनतियों की जरूरत थी और न श्राचार्य देव चातुर्मास की विनती के साथ किसी भी गृहस्थ के ऊपर व्यर्थ के भार लादने रूप शर्तें ही रखते थे । न वे किसी धनाढ्य अप्रेश्वर की चापलूसी- खुशामद करते थे और न वे किसी प्रकार के आत्मगुण विघातक बाह्य श्राड - म्बरो में अपने मान की महत्ता ही समझते थे । वे तो थे एकान्त निस्पृही निप्रन्थ । त्याग का अपूर्वपाठ पढ़ाने वाले संसार के अपूर्व शिक्षक । सब प्रकार की आधि-व्याधि एवं उपाधि से विमुक्त आत्मिक सुख का सुखमय जीवन व्यतीत करने वाले सच्चे श्रमण। वे अपने लिए तो किसी प्रकार का खर्चा करवाते ही नहीं वे जो कुछ उपदेश देकर कार्य करवाते वे एक दम पारमार्थिक किंवा चतुर्विध संघ के हितको उद्देश्य में रखकर ही । इसमें इनका किञ्चित् भी स्वार्थ किंवा शासन को हानि पहुँचाने का लक्ष्य ही नहीं था । वे तो आपसी विवाद एवं कलह को भी दूर करके शासनोन्नति में ही अपने श्रमण जीवन की सार्थकता समझते । संघ के कार्य के लिये वे उपदेश अवश्य करते थे । किन्तु किसी के ऊपर भार डालकर जबर्दस्ती श्राप्रह ११०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only सूरीश्वरजी का नागपुर में प्रवेश Pww.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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