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________________ वि० सं०८२२-६५२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करे। समझदारों का तो सर्वप्रथम यही कर्तव्य हो जाता है कि वे मोक्षमार्ग की सुष्टुप्रकारेण अाराधना नमार्ग की आराधना या चारित्रवत्ति की उत्क्रप्रता कोई असाध्य वस्त नहीं हैं। इसमें तो केवल भावों की ही मुख्यता है। सांसारिक विषय कपायों की ओर से मुंह मोड़कर आत्मोन्नति की ओर लक्ष्य दौड़ाने से यात्म श्रेय का अनुपमानन्द सम्पादन किया जा सकता है। आप लोग जितना कष्ट धनोपार्जन एवं कौटम्बिक पालन पोषण व रक्षण के लिये उठाते हैं उसमें से एक अंश जितना कष्ट आत्मोन्नति के कार्य में उठाया करें तो मोक्षमार्ग की आराधना बहुत ही सुगमता पूर्वक की जा सकती है । शास्त्रकारों ने फरमाया है णाणं च दंसणं चेव चारत च तवोतहा । एय ग्गमणुपत्ता जीवा गच्छन्ति सौग्गइं॥ आर्थात्-शान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों की आराधना करने से मोक्षमार्ग की आराधना होती है। यदि मोक्ष के उक्त चार अङ्गो की जधन्य आराधना भी की जाय तो आराधक जीव १५ भवों में तो अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आचार्यश्री ने उपस्थित जन समाज को वैराग्यमय एवं मार्मिक उपदेश दिया कि सभा में आये हुए सभी लोगों के हृदय में वैराग्य की लहरें हिलोरें खाने लग गई । उन्हें संसार अरुचिकर एवं घृणा स्पद ज्ञात होने लगा। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से सब लोगों के विचार तो विचारों में ही विलीन होगये पर शा० लिम्बा के पुत्र पूनड़ के हृदय पर उसका गम्भीर असर हुअा। उसे क्षण मात्र भी संसार में रहना भयानक ज्ञात होने लगा। वह सोचने लगा-सूरिजी का कहना अक्षरशः सत्य है । यदि प्राप्त स्वणोवसर का सदुपयोग मोक्ष मार्ग की आराधना में न किया जाय तो जीवन की सार्थकता या विशेषता ही क्या है ? ऐसे अवसर पुण्य की प्राप्ति प्रबलता से ही सम्भव है अतः समय को सांसारिक विषय कषायों में खो देना अयुक्त है। इस प्रकार के वैराग्य की उन्नत भावनाओं में आचार्यश्री का व्याख्यान समाप्त होगया। सब लोगों ने वीर जयध्वनि के साथ अपने २ घरों की ओर प्रस्थान किया । पुनड़ भी विचारों के प्रवाह में बहता हुआ अपने घर गया पर उसके मुख पर प्रत्यक्ष झलकती हुई वैराग्य की स्पष्ट रेखा छिपी नहीं सकी । उसने जाते ही माता पितायों से दीक्षा के लिये आज्ञा मांगी। पर वे कब चाहते थे कि गार्हस्थ्य जीवन का सकल भार बहन करने वाला पूनड़ उन सबों को छोड़ कर बातों ही बातों में दीक्षा लेले । उन्होंने पूनड़ को मोह जनक विलापों से संसार में रखने का बहुत प्रयत्न किया पर जिसको आत्मस्वरूप का सज्ञान हो गया वह किसी भी प्रकार प्रलोभन से भी संसार रूप काराग्रह में नहीं रह सकता है। पुनड़ का भी यही हाल हुआ। पानी में लकीर खेंचने के समान माता-पिताओंके समझाने के सकल प्रयत्न निष्फल हुए। पुनड़ के वैराग्य की बात सारे नगर भर में फैल गई। कई महानुभाव तो पूनड़ के साथ दीक्षा लेने को भी उद्यत हो गये। सूरिजी के त्याग वैराग्यमय व्याख्यान जल ने वैरागियों के वैराग्यांकुर को और प्रस्फरित एवं विकसित कर दिया। ८७० माघ शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन शा० लिम्बा के महामहोत्सव पूर्वक वैरागी पूनड़ श्रादि १६ नरनारियों को सूरिजी ने भगवती जैन दीक्षा दे पूनड़ का नाम कल्याणकुम्भ रख दिया ! मुनि कल्याणकुम्भ ने भी २२ वर्षे पर्यन्त गुरुकुलवास में रह कर वर्तमान साहित्य का गहरा अध्ययन किया। आचार्य पट्ट योग्य सर्वगुण श्राचार्यश्री की सेवा में रहकर सम्पादित कर लिये । अतः श्रीदेवगुप्तसूरि ने अपने अन्तिम समय में कल्याण कुम्भ मुनि को उपकेशपुर में श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक सूरि पदार्पण कर श्रापका नाम परम्परानुसार सिद्धसूरि रख दिया। पट्टावलीकारों ने आपके सूरिपद का समय वि० सं० ८६२ माघ शुक्ला पूर्णिमा लिखा है। आचार्यश्री सिद्धसूरिजी गहान् प्रतिभाशाली उग्रविहारी, धर्मप्रचारक प्राचार्य हुए | आपके त्याग, वैराग्य की उत्कृष्टता एवं भावों की उच्चता का जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता था। आपके शासन समय में चैत्यवास की शिथिलता ने उग्र रूप धारण कर लिया था पर आपके हितकारी उपदेश से एवं क्रियाओं १३५२ शाह पुनड़ की दीक्षा-सारिद Jain Education International For Private & Personal Use Only w.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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