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________________ श्राचार्य सिद्धमुरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ करते । उस समय के धर्माचार्यों का जातीय प्रेम विषयक उपदेश ही ऐसा मिलता व आप स्वयं भी इस बात के पूरे अनुभवी थे कि स्वधर्मी बन्धु रूप उपवन हरा भरा गुल चमन रहा तो न्याति जाति समाज एवं धर्म की भी उन्नति ही है। यही कारण था कि उस समय हमारे आत्म बन्धुओं से दरिद्रता ने आश्रय नहीं लिया था । वे लोग साधारण धार्मिक सामाजिक कार्यों में लाखों रुपये व्यय कर देते थे किन्तु इतने में भी उनको किसी प्रकार की कल्पना नहीं होती। शाह लिम्बा के सात पुत्र और पाँच पुत्रियां थी । उक्त पुत्रों में एक फूभड़ नाम का लड़का अत्यन्त तेजस्वी भाग्यशाली एवं धीमान था । आपकी वीरता, उदारता, गम्भीरता, धर्मज्ञता, परोपकार परायणता व स्व० पर की कल्याण भावनाओं की उत्कर्षता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी। देव, गुरु, धर्म पर तो शिशुकाल से ही आपकी दृढ़ श्रद्धा थी । तात्पर्य यह कि-लघुकर्मी जीव में होने वाले रात्र ही गुण पूनड़ में यथावत् वर्तमान थे। भाग्यवशात् एक समय भू-भ्रमन करते हुए आचार्यश्री देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज अपनी शिष्य मण्डली के साथ डिडूपुर नगर की ओर पधार रहे थे। डिडूपुर निवासियों को जब इस बात को खबर हुई तो उनके हृदयों में धर्म प्रेम का अपूर्व उत्साह प्रादुर्भूत हो गया। वे अत्यन्तोत्साह पूर्वक आचार्य श्री के नगर प्रबेश महोत्सव के कार्य में संलग्न हो गये । क्रमशः सूरीश्वरजी के पदार्पण करने पर डिडूपुर श्री संघ ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर जैनेतर जन समाज को आश्चर्य चकित करने वाला उत्साह प्रद नगर प्रवेश महोत्सव किया । स्थानीय मन्दिरों के दर्शन के पश्चात् आचार्यश्री ने आगत जन समाज को प्रारम्भिक माङ्गलिक धर्म देशनादि पश्चात् सभा विसर्जित हुई । सूरीश्वरजी की व्याख्यानशैली की अपूर्वता ने जन समाज को अपनी ओर इतना आकर्पित किया कि व्याख्यान स्थल व्याख्यान के समय बिना किसी भेदभाव के समाधि पूर्वक खचाखच भर जाता था। जैन और जैनेतर सब ही व्याख्यान श्रवण के लिये उमड़ पड़ते। एक दिन प्रसङ्गवशात् आचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि-महानुभावों ! जीव अनादि काल से इस संसार चक्र में चक्रवत परिभ्रमन करता रहा है स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अरहट्ट माल की भांति सुख एवं दुःख का विचित्र अनुभव कर रहा है। कभी शुभ कर्मों की प्रबलता से देव ऋद्धि के अनुपम सुख का आस्वादन करता है तो कभी पाप कर्मों की जटिलता से नरक की नारकीय वेदना का। इस प्रकार सुख दुःख मिश्रित विचित्र अवस्थाओं में इस जीव ने अनन्त जन्म धारण किये हैं । कहा है एगया देवलोए सु नरएसु वि एगया । एगया आसुर कायं अहा कम्मेहिं गच्छइ । एवं भव संसारे संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमाय बहुलो समयं गोयम मा पमायए । अर्थात्-यह जीव स्वोपार्जित कर्मों के वशीभूत कभी देव लोक में तो कभी नरक में कभी स्वर्ग के अनुपम देव रूप में तो कभी राक्षसीय रूप में प्रमाद वश ८४ लक्ष जीव योनि का पात्र बनता रहता है अतः धर्म कार्य में या आत्म श्रेय में क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । धर्मकार्य में मन को दृढ़ रखते हुए वीतराग की आज्ञा का आराधना हो इस लोक और परलोक के लिये कल्याण कारी व भव भ्रमन से मुक्त करने वाला है। वीतराग के मार्ग की आराधना करने में भी उत्तम सामग्री की आवश्यकता है वह सामग्री भी अनन्तकाल परिभ्रमन करते हुए कभी पुन्योदय से ही मिलती है। अतः आज प्राप्त सामग्री का सदुपयोग करने में ही जीवन के अभीष्ट सिद्धि की सार्थकता है। यदि सुरदुर्लभ धर्म करने योग्य उत्तम साधनों के हस्तगत होने पर भी मोक्ष मार्ग की आराधना न की जाय तो पुनः पुनः ऐसी सामग्री मिलना बहुत कठिन है। इस मानव देह की अलोकिकता के लिये विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। आप एवं विचारज्ञ हैं। अस्तु आचार्यश्री का उपदेश १३५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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