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वि० सं० ८६२-६५२]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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४४-आचार्य-श्रीसिद्धसूरि (९वें)
वीर रेष्ठिकुले तु हीरकसमः सिद्धाख्यसूरिर्महान् । दक्षो वादि समूहमानगजतानाशे सुतीक्ष्णाङ्कशः ॥ नित्यश्चैव तु राजमण्डलगतः कृत्वा परास्तान् परान् ।
लब्धाऽलभ्ययशश्च धर्मविजयं सम्पाद्य पूज्योऽभवत् ॥ के रम पूज्य आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी म. जैन धर्म रूप शुभ्र गमन में सूर्य की भांति प्रकाश करने वाले, प्रखर विद्वान्, अतिशय प्रभावशाली, जिनधर्म प्रचारक आचार्य
हुए । आपश्री ने विद्या सम्पादन करने में जितनी निपुर्णता, दक्षता एवं कार्य कुशलता से काम लिया वैसे ही ज्ञान दान करने में, शास्त्राध्ययन करवाने में एवं तात्विक सिद्धान्तों के मर्म को समझाने में चातुर्यकला परिपूर्ण पाण्डित्य का परिचय दिया। ज्ञान दान की अत्यन्त उदारवृत्ति के साथ ही साथ तपश्चर्या रूप कठोर तपश्चरण को अङ्गीकार करने में भी आप कर्मठ महात्मा थे। तपस्तेजपुञ्ज के अतिशय अवर्णनीय प्रभाव से प्रभावित हुए सुरासुरदैत्यदानवेन्द्र आदि से आप पूजित पादपद्म थे। आपश्री के चरणारविन्दःमकरन्द के अभिलाषी मिलिन्द आपश्री की ज्ञान, तप रूप सौरभ से आकर्षित हो सदैव सेवा के लिये पिपासुओं की भांति उत्कण्ठित एवं लालायित रहते थे। तपश्चर्यादि संयमित जीवन की कठोरता के कारण कई विद्याओं को आप सिद्ध कर चुके थे। सारांश आपके पावन जीवन का अवतरण भी लोक कल्याणार्थ ही हुआ । पट्टावली निर्माताओं ने आपके जीवन के विषय में विशद् प्रकाश डाला है किन्तु ग्रन्थ विस्तार भय से मैं यहाँ संक्षेप में ही लिख देता हूँ।
मरुधर भूमि के अलंकार और स्वर्ग के सदृश डिडूपुर नाम का एक अत्यन्त रमणीय नगर था । वहाँ के निवासी धनधान्य से बड़े ही समृद्धिशाली और इष्टबली थे। व्यापार में तो वे इतने अग्रसर थे कि-देश विदेश आदि में उनका व्यापार प्रबल परिमाण में चलता था। व्यापारिक उन्नति के मुख्यतया न्या
और पुरुषार्थ रूप तीन साधन हैं व्यापारिक अवस्था की प्रबलवृद्धि के साथ ही साथ उक्त तीनों ही साधन प्रचूर परिमाण में वृद्धि गत हो रहे थे । अतः वहाँ के सब लोग सब तरह से सुखी एवं आनंदित थे। नगर के अन्दर व बाहिर कई जिन मन्दिर थे जिनके उच्च शिखरों के स्वर्णमय कलश मध्यान्ह में सहस्र राशि की प्रखर रश्मियों से प्रदर्शित हो चमकते थे। पवन की तीव्रता के साथ ही साथ मन्दिर की उच्चत्तम पताकाएं फहराती हुई जैन धर्म के भावी अभ्युदय का सूचन कर रही थी। उस नगर के प्रमुख व्यापारियों में अधिक लोग उपशवंश के ही थे। इन्हीं में श्रेष्टि गौत्रीय शाह लिम्बा नामक एक सेठ बड़ा ही विख्यात था। आपकी गृहदेवी का नाम रोली था। आप अपने न्यायोपार्जित शुभ द्रव्य का शुभ स्थानों में उपयोग कर अपने जीवन को सफल किया करते थे। तदनुसार आपने तीन बार तीर्थों की यात्रार्थ बृहत संघ निकाल कर अक्षय पुण्यराशि का सम्पादन किया। आगत स्वधर्मी भाइयों को स्वर्णमुद्रिकाएं एवं अमूल्य वस्त्रों की पहिरावणी दी। सात बड़े यज्ञ (जीमणवार ) किये । याचकों को पुष्कल दान दिया । इस प्रकार और भी अनेक जनोपयोगी शुभ कार्य किये। स्वधर्मी भाइयों की ओर तो आपका सदैव लक्ष्य ही रहता था अतः जब कभी किसी
तीय बन्धुओं की विशेष परिस्थिति से आप अवगत होते उसे हर तरह से सहायता पहुँचाने का प्रयत्न
आचार्य सिद्धसूरि का जीवन
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