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________________ वि० सं० ६०१ से-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पर प्राचार्यों का विहार तो श्रमण मण्डली के धर्म प्रचार में भी उत्साह वर्धक सिद्ध होता इनके सिवाय महाराष्ट्र प्रान्त में यत्र तत्र दिगम्बराचार्यों का भी भ्रमन प्रारम्भ हो चुका था। यह लिखना भी अस्युक्ति पूर्ण न होगा कि दिगम्बरों के लिये भी महाराष्ट्र प्रान्त एक विहार क्षेत्र बन गया था। संख्या में दिगम्बर साधु नग्नवाद के कारण बहुत कम थे और जो थे वे भी प्रायः महाराष्ट्र प्रान्त में ही विचारते थे। ___आचार्य देवगुप्तसूरि दो वर्ष तक महाराष्ट्र प्रान्तों में सर्वत्र अनवरत गति से, धर्म प्रचार की तीब्रोछा पूर्वक भ्रमण करते रहे । परिणाम स्वरूप आपकी प्रखर प्रत्तिभा सम्पन्न विद्वता द्वारा वादी इतने फीके पड़ गये जैसे कि-सहस्त्र रश्मिधारक सूर्य की दीप्ति के समक्ष खद्योत । जैनियों की क्षीण शक्तियों में पुनः सजीवनाता का प्रादुर्भाव हुआ। सर्वत्र (जिधर दृष्टि फैलाये उधर) जैनधर्म की विजय पताका फहराने लग गई । एक समय जैन समाज पुनः चमक उठा । वास्तव में इन कर्म वीरों ने अपनी कार्य कुशलता से संसार में जो जैन धर्म की प्रभावना की है वह; जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से सदा ही अंकित रहेगी। श्राचार्य देवगुप्त सूरिने श्रमण समुदाय एवं श्राद्धवर्ग (उभय पक्ष) को सविशेष प्रोत्साहित करने के लिये मदुरा में एक श्रमण सभा करने का आयोजन किया । स्थान २ पर संदेशे एवं पत्रिकाएं भेजी जाने लगी । महाराष्ट्र (दक्षिण) प्रान्त में विचरते मुनियों में से अप्रगण्य मुनिवर्ग जिनकी कि खास आवश्यकता प्रतीत हुई-निमंत्रण द्वारा बुलाये गये । जब निर्धारित समय पर उभयपक्ष (साधु, श्रावकसमुदाय) की विशाल संख्या उपस्थित होगई तो प्राचार्यश्री के अध्यक्ष त्व में सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। श्राचार्य देवने, वर्तमान में श्रमण सभा करने की आवश्यकता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराते हुए, महाराष्ट्र प्रान्त में विहार कर धर्म प्रचार करने का शुभ श्रेय सम्पादन करने वाले मुनियों को यथा योग्य सम्मान से सम्मानित किया। उनकी-कार्यक्षेत्र में विशेष उत्साह बढ़ानेवाली सच्ची प्रशंसा की। भविष्य के लिये जोरदार शब्दों में प्राचीन श्राचार्यों के ऐतिहासिक उदाहरणों से उन्हें प्रोत्साहित किया । योग्यतानुकूल उन्हें पदवियां प्रदान की। यावत् अपने साधुओं में से बहुत से साधुओं को धर्म प्रचार के लिये महाराष्ट्र प्रान्त में विचरने की आज्ञा दे दी । इस प्रकार श्रमण सभा के कार्य को सफलता पूर्वक समाप्त करने के पश्चात् कालान्तर में प्राचार्यश्री ने वहाँ से विहार कर आवन्तिप्रदेश की ओर पदार्पण किया। मांडवगढ़ के श्रीसंघ के विशेष अाग्रह से वह चातुर्मास भी सूरीश्वर जी ने माण्डवगढ़ में कर दिया । आपश्री के विराजने से चातुमास में अच्छा धर्मोद्योत हुआ । क्रमशः वहां से बुदेलखण्ड होते हुए शूरसेन की ओर पधारे । जब आप मथुरा के नजदीक पहुँचे तो वहां के श्रीसंघ के हर्ष का पारावार नहीं रहा । उन्होंने श्राचार्यदेव का स्वागत एवौं नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह पूर्वक किया। उस समय मथुरा में जैनों के सैंकड़ों मन्दिर एव स्तूप विद्यमान थे। श्रापश्री का व्याख्यान हमेशा ही होता था । व्याख्यान श्रवण का लाभ जैन व जैनेतर समाज बड़े ही हर्ष पूर्वक लेती थी कारण एकतो आपकी विषय प्रतिपादन शैली इतनी सरस थी कि विद्वान् व अनपढ़ व्यक्ति भी इसका आनंद अच्छी तरह से उठा सकते थे दूसरा बोलने की पद्धति जादू की तरह जन समाज को सहसा अपनी और आकर्षित कर लेती थी। अत: जिस व्यक्ति ने एक बार भी प्राचार्यश्री का व्याख्यान भवण किया वह प्रतिदिन ही दीर्घ उत्कण्ठा पूर्वक व्याख्यान श्रवण का लाभ लेता। उस समय जैसे मथुरा में जैनियों का जोर था उसी तरह से बौद्धों का भी पर्याप्त प्रभाव था। मदुरामें संघ सभा Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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