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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ के भी सैकड़ों साधु मथुरा में धर्मप्रचारार्थ स्थिरवास कर, रहते थे। पर श्राचार्य देवगुप्तसूरि एवं अन्य जैनाचार्यों का भी उन पर इतना प्रभाव पड़ा हुआ था कि वे बनते प्रयत्न उनके सामने सिर उठाने का दुस्साइसही नहीं करते | महाराष्ट्र प्रान्त में बौद्धों के धर्म प्रचार का मार्ग अवरुद्ध होजाने का कारण एक मात्र पूज्यपाद, आचार्य देवगुप्त सूरि ही थे । बौद्ध श्रमणसमुदाय आचार्यश्री की विद्वत्ता से अनभिज्ञ नहीं थे । अतः वे मौन रहने में ही अपना मान समझने लगे । मथुरा के श्रीसंघ के अत्याग्रह होने से यह चातुर्मास आचार्यश्री ने मथुरा में ही करने का निश्चय कर लिया इससे जैन जनता में अच्छी जागृति और धर्म की खूब प्रभावना हुई । आपश्री के त्याग वैराग्य के व्याख्यानों का जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा और चातुर्मास के उतरते ही पांच पुरुष और तीन बहिनों ने असार संसार से विरक्त होकर महा महोत्सव पूर्वक आचार्यश्री के पास में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली । उक्त दीक्षाओं का महोत्सव श्रेष्टिगोत्रीय शाः हरदेव ने किया जिसमें सवालक्ष द्रव्य व्यय किया गया । इस अवधि के बीच आप श्री ने बध्पनाग गोत्रीय शा. चांचग के बनवाये हुए पार्श्वनाथ भगवान् के मंदिर की प्रतिष्ठा भी महा महोत्सव पूर्वक करवाई। बाद में आपने भगवान् पाश्र्वनाथ की कल्याण भूमि की स्पर्शना के लिये काशी की और विहार किया । कुछ समय तक काशी एवं काशी के आस पास के तीर्थों की यात्रा करते हुए धर्मोपदेश देते रहे । काशी की तीर्थ यात्रा के पश्चात् आपश्री का विहार कुनाल और पंजाब प्रांत की ओर हुआ । उक्त प्रान्तों में आपके श्राज्ञानुयायी कई मुनि पहले से ही आपश्री के आदेश से धर्म प्रचार करही रहे थे जब उक्त प्रचारक श्रमण मण्डली ने आचार्यश्री का आगमन सुना तबतो दूने वेग से एवं दूनी रफ्तार से उन्होंने अपने प्रचार कार्य को बढ़ाया । श्राचार्यश्री भी स्थान २ पर उनको सन्मान देते हुए, प्रशंसा करते हुए उनके उत्साह में खूब वृद्धि करते रहे। उस समय पन्जाब प्रान्त का जैन समाज तो बहुत ही उन्नत हो चुका था । हमारे उन पूर्वाचार्यों ने धर्मविहीन इस पन्जाब क्षेत्र में क्षुधा पिपासा व ताड़ना, तर्जनादि वाममार्गियों के परिषहों को सहन करते हुए अत्यन्त लगन पूर्वक धर्म प्रचार किया था । इधर सिंध प्रान्त में विचरने की आवश्यकता ज्ञात होने से आचार्यश्री ने पन्जाब प्रातीय श्रमण मण्डली को उसके क्षेत्रावश्यक संकेत करते हुए शीघ्र ही सिंध प्रान्त की ओर पदार्पण कर दिया। सिंध प्रान्त में वे दो वर्ष पर्यन्त लगातार भ्रमन करते रहे । स्थान २ पर सुप्त समाज को जागृति कर उन्हें धर्म के श्रभिमुख बनाया । उक्त प्रान्त में बिचरने वाले मुनियों की एक सभा की जिससे तत्प्रान्तीय सकल साधु समुदाय को एकत्रित कर उनके धर्म प्रचार के कार्य को प्रोत्साहन दिया गया। योग्य मुनियों को उपाध्याय वाचक, गणि, गणावच्छेदक पदवियों से विभूषित किया गया । श्राचार्य श्री के आगमन से एवं सहयोम से मुनियों में भी धर्म प्रचार करने का अलौकिक साहस उत्पन्न हो गया । उन्होंने अपने पूर्व के कार्य को और भी उत्साहपूर्वक तीव्र गति करना प्रारम्भ किया | वास्तव में पूर्वाचार्यों के आदर्श को अभिमुख रखकर जैनजाति को उन्नत करने के लिये वर्तमान कालीन आचार्यो उपाध्याय श्रमणवर्ग प्रान्तीय विभागनुसार धर्म प्रचार के कार्य के लिये कमर कसलें तो अब भी पूर्वाचार्यों का वह स्वर्ण समय हम से दूर नहीं है । पर इसके लिये चाहिये धर्म प्रचार की उत्कट अभिलाषा, स्वार्थ का बलिदान, मान पिपासा की होली, सूरीश्वरजी का सिन्ध में विहार Jain Education International For Private & Personal Use Only १०३५ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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