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________________ वि० सं०६०१-६३१ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्मानुराग की सच्ची लगन, श्रमण कर्तव्य की अभिज्ञता, जीवन का उचच्चतम ध्येय, संयम जीवन की निर्भलता। इस तरह सिंध प्रान्त में जागृति की बिजली लगाते हुए श्राचार्यश्री कच्छ भूमि की ओर पधारे । वास्तव में उस समय के आचार्यों से एक प्रान्त को ही धर्म प्रचार का अङ्ग नही बना लिया था वे तो अपने योग्य मुनियों को धर्म प्रचारार्थ विविध प्रान्तों में समयानुकूल भेजते ही रहे । उनको विशेष उत्साहित करने के लिये स्वयं श्राचार्यश्री भी क्रमशः विविधप्रान्तों में पर्यटन कर उनके कार्यों में सहयोग दे उनके नवीन शक्ति का प्राहुर्भाव करते रहते थे । यह ही श्रादर्श पाठकों ने हरएक प्राचार्य के जीवन में देखा व सम्प्रति श्रीदेवगुप्तसूरिजी के जीवन में भी देख रहे हैं। प्राचार्यश्री ने कच्छभूमि में एक वर्ष पर्यंत रह कर अपने मधुर एवं रोचक उपदेश के द्वारा जैन जनता में भाशातीत शक्ति का संचालन किया। इस तरह अनुक्रम से शिष्य समुदाय को प्रोत्साहित करते हुए आपश्री के चरण कमल सौराष्ट्र प्रान्त की ओर हुए। छोटे बड़े ग्रामों में विहार करते हुए आप परमपावन तीर्थाधिराज श्री शत्रुब्जय की यात्रा कर परमानंद को प्राप्त हुए । कुछ समय तक आत्म शांति का अनुभव करने के लिये श्रापश्री शत्रुञ्जय सीर्थ की छत्रछाया में स्थित रहे । यहां पर आप ध्यान मग्न हो परम निवृत्ति मार्ग का (श्रात्म-म्यान का) आराधन करते रहे । कुछ समय की निवृत्ति सेवन के पश्चात् लाट होते हुए आपने पुनः मरुधर की ओर पदार्पण किया जब मरुधर वासियों ने प्राचार्यश्री देव गुप्त सूरिका आगमन सुना तो उनके हर्ष का पारावार नहीं रहा । वे अत्यन्त आशा पूर्वक आचार्यश्री के पधारने की उत्कष्ठा पूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। श्राचार्यश्री ने इस दीर्घ विहार में अपने पूर्वजों के कर्तव्यों के अनुसार कई मांस मदिरा रसिकों को मिथ्यात्व, पोषक पापवर्धक वस्तुओं का त्याग करवा कर; उन्हें पूर्वाचायों द्वारा संस्थापित विशाल महाजन संघ में सम्मिलित कर; महाजन संघ की वृद्धि की । धर्म को स्थिर रखने वाले, ऐतिहासिक साहित्य का स्मरण कराने के लिये परमोपयोगी, जन कल्याण में कारण रूप, साध्य की प्राप्ति के लिये साधन रूप कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन ऐतिहासिक नीव को दृढ़ किया । आत्म कल्याण की भावना के इच्छुक; सांसारिक प्रपञ्चों एवं पौद्गलिक सुखों से एक दम विरक्त, दृढ़ वैरागी भावुकों को भगवती दीक्षा दें उन्हें मोक्षमार्ग के आराधक बनाये । इस तरह शव्दतों अवर्णनीय, शासन सेवा का लाभ लिया ।। इस समय सूरिजी महाराज की वृद्धावस्था हो चुकी थी पर आपका उत्साह एवं कार्य करने की लगन युवकों को भी शर्माने वाली थी। जब आप क्रमशः विहार करते हुए पद्मावती में पधार गये तो आपश्री के दर्शन का दीर्घ काल से पिपासु शिवपुरी वगैरह का संघ सत्वर ही दर्शनार्थ पद्मावती श्राया उन्होंने शिवपुरी पधारने और चातुर्मास का लाभ देने की अत्यन्त श्राग्रह पूर्ण प्रार्थना की किन्तु पद्मावती का श्रीसंघ इस अलम्य अवसर का या यकायक घर आई गङ्गा का सहुपयोग किये विना यों ही कैसे जाने देने वाला था ? पद्मावती संघ की विनती तो शिवपुरी के श्रीसंघ से भी अधिक आग्रह पूर्ण थी अतः आचार्यश्री को भी पद्मावती की विनती को मान देना ही पड़ा । परिणाम स्वरूप वह चातुर्मास पद्मावती में कर दिया गया। सूरिजी के विराजने से ऐसे तो यहाँ धर्म का खूब ही सद्योत हुआ, पर विशेष में वहां के प्राग्वट वंशीय मंत्री मुन्मा के माला पुत्र ने एक मास की विवाहित पत्नी एवं करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का त्याग कर श्रीशकुञ्जय तीर्थ की यात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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