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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ रहने से साधुओं के प्रति श्रद्धा में भी कुछ अन्तर होजाता है। वास्तव में नीति का यह निन्न कपनभतिपरिचयादवज्ञा सततगमनादनादरोभवति । मलये मिल्लपुरंध्री चंदनतरुकाष्ठानिन्धनं कुरुते ॥ सत्य ही है यदि प्रान्तीय मोह का त्याग कर साधु-विहीन क्षेत्रों में साधु, धर्म प्रचार करते रहे तो इससे शीघ्र ही धर्मो मति होसकती है और चारित्र भी निर्मल रीति से पाला जा सकता है । किन्तु, चाहिये इसके लिये प्रान्तीय व्यामोह का त्याग और जिनशासन की उन्नति की उच्चत्तम-उत्कर्षभावना। शास्त्रकारों ने ऐसे शिथिलाचारियों को, ग्रामपंडोलिये, नगरपंडोलिये, देशपंडोलिये कह कर पासत्थों की गिनती में गिना है। हम ऊपर पढ़ आये हैं कि उपकेशगच्छ में एक भी ऐसे प्राचार्य नहीं हुए जो कि, सूरि होने के बाद एकाध प्रान्त में ही विचरते रहे हो। उन्होंने अपने जीवन का विहार क्रम भी इस प्रकार बना लिया कि वे अपने क्रमानुसार प्रत्येक प्रान्त को सम्भालते ही रहे । कम से कम एक बार तो प्रत्येक प्रान्त में विचर कर जैन समाज की सच्ची परिस्थिति का अनुभव कर ही लेते थे । यही कारण था कि उस समय का जैनधर्म एवं जैनसमाज धन, जन, संख्यादि सर्व बातों में उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ था। प्राचार्य देव व अन्य श्रमण वर्ग भी, पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित महाजनसंघ की वृद्धि एव जैनधर्म की उन्नति, जैन धर्म का प्रचार चतुर्दिक पर्यटन करते हुए-किया करते थे। ___जब व्यापारी वर्ग व्यापार निमित्त इतर प्रान्तों में अपना व्यापारिक क्षेत्र कायम करते थे तब श्रमण समुदाय भी यदाकदा उन प्रान्तों में विचर कर उन श्रावकों की धर्मभावना को जागृत कर अन्यधर्मावलम्बियों को प्रतिबोध देकर जैनधर्मावलम्बी बनने का श्रेय सम्पादन करते रहते थे। यही कारण था कि प्रत्येक प्रान्त में जैनियों की विशाल संख्या होगई थी। पिछले श्राचार्यों ने तो सर्वत्र विहार करना-अपना कर्तव्य ही बना लिया था। इसी विहार कर्तव्य के कारण वे लाखों की संख्या में स्थित महाजनसंघ को करोड़ों की संख्या में ले आये थे। अस्तु प्राचार्य देवगुप्त सूरिने अपने शिष्यों के साथ महाराष्ट्र प्रान्त की ओर विहार कर दिया। प्राप क्रमशः छोटे बड़े प्रामों को स्पर्शते हुए सर्वत्र धर्मोपदेश द्वारा नव जागृति का बीज बोते हुए आगे बढ़ते रहे। ऐसी दीघ अपरिचित क्षेत्रों की यात्रा में मुनियों को थोड़ी बहुत तकलीफ का अनुभव तो अवश्य हो करना पड़ा होगा पर, जिन्होंने अपना जीवन ही शासन सेवा के लिये अर्पण कर दिया उनके लिये कठिनाइयां क्या बिघ्न उपस्थित कर सकती हैं ? वास्तव में-- "मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुक्खं न च सुखम्" वे तो अपना धर्म प्रचार रूप पावन कर्तव्य को अपने जीवन का अङ्ग बनाते हुए परिषहों की परवाह किये बिना शासन को उन्नत बनाने के लिये अपने क्षणविनाशो देह को अर्पण करने को उद्यत थे। उनके नशों में जैन धर्म के प्रति बाह्य या कृत्रिम अनुराग नहीं था किन्तु उन्होंने जैन धर्म की उन्नति में ही अपनी उन्नति सममली थी। महाराष्ट्र प्रान्त में स्वनामधन्य, पूज्यपाद, लोहित्याचार्य के द्वारा सर्व प्रथम धर्म की नींव डाली गई यी। अतः उस समय से ही महाराष्ट्र प्रान्त में आपके साधु समुदाय का विहार होता रहता था । समय २ आचार्यश्री का महाराष्ट्र में विहार १०३३ Jain Education Integral For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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