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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० . . ............. दी कि जिससे वे दोनों भाई वल्लभी में रहकर व्यापार करने लगगये उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा करली थी कि प्रत्येक मास की पूर्णिमा के दिन तीर्थ श्री शत्रुजय की यात्रा करनी और उस प्रतिज्ञा को अखण्ड रुपसे पालन भी किया करते थे । इस प्रकार धर्म क्रिया करने से उनके श्राशुभ एवं अन्तराय कर्म का क्षय होकर शुभकर्मों का उदय होने लगा । कहाँ है कि नर का नसिव किसने देखा हैं । एक ही भवमें मनुष्य अनेक अवस्थाओं को देख लेता है । काकुऔर पातक पर लक्ष्मी देवी की सैने सैने कृपा होरही थी कि वे खूब धनाढ्य बनगये उन्होंने अपनी पूर्व स्थिति को याद कर न्यायोपार्जित द्रव्य से वल्लभी में एक पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया और भी कई शुभकार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग किया फिर भी लक्ष्मी तो बढ़ती ही गई काकुपातक के जैसे लक्ष्मी वढ़ती थी वैसे परिवार भी बढ़ता गया। काकु के पुत्रों में एकमल्ल नाम का पुत्र था तथा मल्ल के पुत्र थोभण और थोभण के रांका और वांका नाम के पुत्र हुए परम्परा से चली आई लक्ष्मी रांका वांका से रूष्ठमान हो उनसे किनारा कर लिया अतः गंका बांका फिर से साधारण स्थितिमे श्रा पहुँचे शायद लक्ष्मी ने उनकी परीक्षा करने को ही कुच्छ दिनों के लिये मुशाफरी करने को चली गई होगी। पर रांका वांकाने इस ओर इतना लक्ष नहीं दिया एक योगीश्वर यात्रार्थ भ्रमन करता हुआ वल्लभी में आ पहुँचा उसके पास एक सुवर्ण सिद्धिरस की तुंबी थी उनकी रक्षण करने में वह कुच्छ दुःखी होगया, ठीक है योगियों के और इस झंजाल के आपस में धन नहीं सकता है फिर भी उसकी सर्वथा ममत्व नहीं छुट सकी अतः वह चाहता था कि मैं इस तुंबी को कही इनामत रख जाउ कि वापिस लौटने के समय ले जाऊगा, भाग्यवसात् रांकां से उसकी भेट हुई और तुंबी उसको इस शर्त पर देदी कि मैं वापिस श्राता ले जाउगा । रांकाने उस तुंबी को लेजाकर अपने रसोई बनाने का पास से छाया हुआ मकान की छातमें एक वांस से बान्ध कर लटकादी योगीश्वर तो चला गया वाद किसी कारण उस तुंबी से एक बुन्द रसोई के तपा हुआ तवा पर गिर गई जिससे वह लोहा का तवा सुवर्ण बनगया। रांका गया था शत्रुजय यात्रा के लिये । वांका था घर पर उसने लोहा का तवा को सुवर्ण का हुआ देख उस तुबी को हजम करने का उपाय सोचकर अपने मकान को आग लगादी और रूदन करने लग गया अज्ञात लोगों ने उसको असास्वन दिया और वांकाने दूसरा घर बनाकर उसमें निवास कर दिया और लोहाका सुवर्ण बनाना शुरु कर दिया जब रांका घर पर आया और वांका की सब हकीकत सुनी तो उसने बहा भारी पश्चाताप कर वांका को बड़ा भारी उपालम्ब दिया कि ऐसा जघन्यकार्य करना तुमको योग्य नही था अब भी इस तुंबी को इनामत रख दो जब योगीश्वर श्रावे तो उसको संभला देना पर न आया योगीश्वर न संभला तुंबी क्योकि तुंवी तो रांका वका के तकदीर में ही लिखी हुई थी वस उस नुंबी से रांका वांकाने पुष्कल सुवर्ण बनाकर वे बड़े भारी धनकुबेर ही बनगये। न जाने इनयुगल भ्राताओं ने किस भाव में ऐसे शुभ कर्मीपार्जन किया होंगे । कि उस जमा वंदी को इस भाव में इस प्रकार वसुल किया। अस्तु । शाहरांका के एक चंपा नामकी पुत्री थी रांकाने उसके वाल समारने के लिये किसी विदेशी से रन जड़िता वहुमूल्य कांगसी खरीद कर चंपा को देदी वह कांगसी क्या भी उक अपूर्व जैवरात का पूंजथा जिसकों भरतकी एक भादर्श सभ्यता एवंशिल्य कही जा सकती है चंपाके वह कांगसी एक दूसरा प्राण ही बनाई थी। एक समय राजा शिलादित्य की कन्या रत्न(वरी अपनी साथणियों को लेकर वगेचा में खेलने के लिये एवं स्नान मजन करने को गई थी चम्पा भी वहाँ आगई जब वे खेल कुद के स्नान किया तो सवने अपने शाह रांका और वल्लभी का भंग ] Jain Education Integral For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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