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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० १ कोइ भाइ यह खयाल न करे कि २० वर्षों के शासन में १९ वार तीर्थों के संघ निकलवाये तो क्या यही काम किया करते थे ? नहीं यह संघों की संख्या केवल आचार्यश्री के नायकत्व की नहीं पर आपके शासन समय में उपाध्यायजी पंण्डित वाचनाचार्य एवं मुनियों ने भी संघ निकलवा कर यात्रा की उनकी संख्या भी शामिल है यह इनके लिये ही नही पर सर्वत्र समझ लेना चाहिए । कितनेक जैनशास्त्रों एवं इतिहास के अनभिज्ञ लोग जनता में मिथ्या भ्रमना फैला देते है कि-जैन धर्मावलम्बी लोग तलाव कुवे बनाने में पाप बतला कर मनाई करते हैं अतः जैन तलाबादि नहीं बनाते हैं इस पर ज्ञाता सूत्र के अन्दर आया हुआ नन्दन मिनीयार का उदाहरण भी देते हैं कि जिसने तलाव कुत्रे एवं बगेचा बनाने से देड़का (मीडक) हुआ था। इत्यादि । पर यह बात ऐसी नहीं है जैन गृहस्थों के लिये जनोपयोगी कार्य करने की न तो मनाई है और न ऐसे जनोपयोगी कार्यों में एकान्त पाप ही बतलाया है हाँ कोई भ्यक्ति इन कार्यों के लिये मुनियों से आदेश लेना चाहे तो वे आदेश के समय मौन रखे पर निषेध एवं मनाई तो मुनि भी नहीं कर सके । इससे पाठक समझ सकते हैं, कि तलावादि कार्य एकान्त पाप के ही कार्य होते तो मुनि निषेध अवश्य कर सकते थे हाँ इस कार्य में जीवहिंसा होने से मुनि आदेश नहीं देते हैं पर जब मुनि नौ प्रकार के पुण्य का उपदेश करते हैं तब अन्न देने से पुन्य, पाणी पीलाने से पुन्य इत्यादि कह सकते हैं तथा आवश्यक निर्युति में आचार्य भद्रबाहु ने मन्दिर बनाने वाले के लिए कुंवा का दृष्टान्त दिया है जैसे कुवां खोदने वाला का शरीर मिट्टी से लिप्त होजाता है पर जब कुवां खोदने पर पानी निकलता है तब वह मिट्टी वगैरह उसी पानी से साफ होजाती है और विशेषता यह कि वह कप का पानी जहां तक रहेगा वहां तक अनेक प्राणधारी जीव उस पानी को पीकर अपने तप्त हृद्य को शान्त किया करेंगे । इसी प्रकार मन्दिर बनाने में श्रारंभ सारंभ होता है, पर जब उस मन्दिर में देव मूर्ति की प्राण प्रतिष्टा होजाती है तब उस भावना से आरंभ सारंभ का सब मैला साफ होकर जब तक वह मन्दिर रहेगा तब तक अनेक संसारी जीव क्रोधादि से अपना तप्त हृदय को उत्तम भावना से शान्त कर सकेगा इस उदाहरण से पाठक ! समझ सकते हैं कि कुवा तलाव खुदाने में जो आरंभादि होता है पर अनेक तप्त हृदय वाले उसका पानी पी कर शान्ति भी प्राप्त कर सकेगा उसका पुन्य भी तो होगा। अब रही नमन मिनियार की बात इसके लिये शास्त्र में यह नहीं कहा है कि वह कुवादि बनाने से दंडक योनिको प्राप्त हुआ पर वहाँ तो स्पष्ट लिखा है कि उसने रात्रि समय आर्तध्यान में ही देडक योनिका आयुष्य बन्धा था यदि भारंभादि के कारण ही तलाव कुवां की मनाई की जाती हो तब तो पशुओं को घास पानी दुकाल में अन्नादि बहुत से कार्य ऐसे हैं कि जिसमें भी आरंभ होता है और मुनिजन ऐसे कार्यों का आदेश भी नहीं देते हैं फिर भी गृहस्थ लोग पुन्य होने की गर्ज से वे सव कार्य करते हैं और मुनिजन उसका निषेध भी नहीं करते हैं तब एक तलावादि के लिये ऐसा क्यों कहा जाता है कि जैन श्रावक तलाब कुवे नही खुदाते हैं ? यदि यह कहा जाय कि पन्द्रह कर्मादान में भूमि खुदाना भी कर्मादान है इस व्रत की रक्षा के लिये भावक तलाबादि नहीं खुदा सकते है ? यह भी अनभिज्ञता ही है कारण कर्मादान का अर्थ अपने स्वार्थ एवं आजीविका के निमित उक्त १५ प्रकार के व्यापार श्रावक नहीं कर सकते हैं पर अपने जरूरी काम की मनाई नहीं है जैसे श्रावक अपने रहने को मकान बनाता है उसमें भी दो दो तीन तीन गज नीवें खुदानी जैन कुवा तालाब बना सकते हैं ? १०८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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